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वि० सं० ५२०-५५८ वर्षे ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
उसदिन सूरिजी खास तौर पर धर्मों के लिये ही व्याख्यान देरहे थे कि इस भरतक्षेत्र में धर्म की नाव चलाने वाले सबसे पहले भगवान ऋषभदेव हुए हैं और उनकी शिक्षा को ग्रहनकर चक्रवर्ती भरत ने चारवेदों का निर्माण किया था और उन वेदोंका अधिकार निलोभी निरहंकारी परोपकार परायण ब्राह्मणों को इस गरजसे दिया कि तुम इन वेदों की शिक्षा द्वारा जनता का कल्याण करो।
जबतक ब्राह्मणों के हृदय के अन्दर निस्पृहता और उपकार बुद्धि रही वहां तक तो उन वेदों द्वारा जनता का उपकार होता रहा पर जबसे ब्राह्मणों के मन मन्दिर में लोभ रूपी पिशाच घुसा उन दिनों से ही ब्राह्मणों ने उन पवित्र वेदों की श्रुतियों को रहबदल कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये दुनिया को लूटना शुरू करदिया इतना ही क्यों पर पूज्य परमात्मा के नाम से वेदों में यज्ञादि का ऐसा क्रियाकाण्ड रच लिया कि विचारे निरापराधी मूक प्राणियों के मांस से अपनी उदर पूर्ति करना शुरू कर दिया परन्तु यह बात एक सादी
और सरल है कि क्या परमात्मा ऐसा निष्ठुर हुक्म कभी देसकते है कि तुम इन प्राणधारी प्राणियों के मांस से तुम्हारी उदरपूर्ति करो? नहीं;जब कोई दयावान् उन प्राणियों पर दया लाकर उन घातकी वृति का निषेध करते है तो अपनी आजीविका के द्वारबन्ध न होजाय इस हेतु से वे ब्राह्मण उन सत्यवक्ताओं को नास्तिक पापी पाखंडी कह कर अपने भद्रिक भक्तों के हृदय में भय उत्पन्न कर देते हैं कि तुम जैनों की संगत ही मत करो। यही कारण है कि वह भद्रिक ऐसे पापाचारों में शामिल हो कर अथवा उन यज्ञकर्ता हिंसकों को मददकर अपना अहित कर डालते हैं पर जिनको परभव का डर है सत्य असत्य का निर्णय कर सत्य स्वीकार करना है वे पराधीन नहीं पर स्वतंत्र निर्णय कर आत्मा का कल्याण करने में समर्थ है अतः उनकों उसी धर्म को स्वीकार करलेना चाहिये जिससे अपना कल्याण हो ? प्यारे सज्जनों । सत्यधर्म स्वीकार करने में न तो परम्परा की परवाह रखनी चाहिये और न लोकापवाद का भय ही रखना चाहिये । चरम चक्षुवाला प्रत्यक्ष में देख सकता है कि आज जनता का अधिक भाग अहिंसा धर्म का उपासक बन चुका है और जहाँ देखो अहिंसा का ही प्रचार होरहा है और वे भी साधारण लोग नहीं पर चारवेद पाठरह पुराण के पूर्णाभ्यासी बडेबडे विद्वान ब्राह्मण एवं राजा महाराजा हैं दूर क्यों जातेहो आपके श्रीमालनगर का राजा जयसेन एवं इसी चन्द्रावती नगरी को आबाद करनेवाला राजा चन्द्रसेनादि लाखो मनुष्यों ने धर्मका ठीक निर्णय कर अहिंसा भगबती के घरनों में सिरमुका दिया था अतः प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वे आत्म कल्याणार्थ धर्मका निर्णय अवश्य करें इत्यादि सूरिजी ने वेद पुराण श्रुति स्मृति उपनिषदों की युक्तियों और आगमों के सबल प्रमाणों द्वारा उपस्थित जनता पर अहिंसा एवं जैनधर्म का खूबही प्रभाव डाला सूरिजी की ओजस्वी वाणी में न जाने जादू सा ही प्रभाव था कि श्रवण करने वालों को घृणित हिंसा के प्रति अरुचि होगई और अहिंसा के प्रति उनकी अधिक रुचि बड़ गई अस्तु ।
सेठ सालग ने सूरिजी का व्याख्यान खूब ध्यान लगाकर सुना और अपने दिल में विचार किया कि शायद आजका व्याख्यान सूरिजी ने खास तौर पर मेरे लिये ही दिया होगा खैर कुच्छ भी हो पर महात्माजी का कहना तो सौलह आना सत्य है कि दयालु ईश्वर ने जिन जीवों को उत्पन्न किया है वे सब ईश्वर के पुत्रतुल्य हैं उनकी हिंसा कर हम ईश्वर को कैसे खुशकर सकते हैं और इस कार्य से ईश्वर कैसे प्रसन्न हो सकता है । खैर जब कभी समय मिलेगा तब महात्माजी के पास आकर निर्णय करेंगे। सभा विसर्जन हुई और सेठ सालग भी अपने घर पर चला गया पर उसके दिलमें सूरि के व्याख्यान ने बड़ी हलचल मचा दी
सेठ सालग पर सूरिजी का प्रभाव ]
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