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________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास व कुरु, पाञ्चाल, कुनाल, सिन्ध कच्छ, सौराष्ट्र लाट, कोकण, और कभी २ इधर दक्षिण ओर उधर पूर्व तक भी आपने विहार किया ऐसा श्रापके जीवन चरित्र से स्पष्ट मलकता है। आपके श्राज्ञानुयायी श्रमणों की संख्या भी अधिक होने से प्रत्येक प्रान्त में धर्म प्रचार करने के लिये योग्य २ पद्विधरों के साथ योग्य २ साधुओं को भेज दिये गये जिससे मुनियों के अभाव में वे क्षेत्र धर्म से वंचित न रह सकें । यह तो हम पहले ही लिख श्राये हैं कि व्यापार निमित्त महाजनसंघने सुदूर प्रान्तों तक अपना निवास बना लिया था मतः साधुत्रों को भी धर्म की दृढ़ता के लिये व नये जैन बनाने के लिये उन प्रान्तों में विचरना उतना ही आवश्यक था जितना महाजनों को व्यापार निमित्त परदेश में रहना । ऐसा करने से ही धर्म का अस्तित्व, एवं श्रद्धा का मार्ग स्थायी रह सकता था अतः आचार्यश्री ने अपनी बुद्धिमत्ता से उस समय के लिये ऐसे नियमों का निर्माण किया कि जिनके श्राधार पर जैनधर्म का सुगमता पूर्वक प्रचार हो सके। विविध २ प्रान्तों में मुनियों को भेजकर श्रावश्यकतानुकूल उनमें परिवर्तन करते रहना समयानुकूल सर्वत्र विहार कर धर्म प्रचारक मुनियों को प्रोत्साहित कर उनके प्रचार में उत्साह वर्धन करते रहना यह आचार्यश्री ने अपना कर्तव्य बना लिया । इससे कई लाभ होने लगे-एक तो उस प्रान्त के निवासियों पर धर्मके स्थायी संस्कार जमाने लगे, दूसरा मुनियों में आचार विचार विषयक पवित्रता आने लगी। तीसरा श्राचार्यश्री के परिभ्रमन में उनके प्रचार कार्य में नवीन उत्साह व श्राचार्यश्री के सहयोग का अपूर्व लाभ प्राप्त होने लगा इस तरह की नवीन २ स्कीमों से श्राचार्यश्री ने शिथिलता व्याधि विनाशक नूतन २ उपचार चिकित्सा प्रारम्भ की। आचार्यश्रीकककसूरिजी म. एक समय विहार करते हुए कान्यकुब्ज प्रान्त की ओर पधारे। उस समय गोपगिरि में श्राचार्यबप्पभट्टसूरिजी विराजमान थे । आपश्री ने जब सुना कि श्राचार्य श्रीकक्कसूरि मी म. पधार रहे हैं तो वहां के राजा श्रम एवं सकल श्रीसंघ को उपदेश दिया कि आचार्यश्री कक्कसूरिज म. महान् प्रतिभाशाली श्राचार्य हैं। अपने भाग्योदय से ही आपका इधर पधारना हो गया है अपना कर्तव्य हो जाता है कि आचार्यश्री का बड़े ही समारोह एवं धामधूम पूर्वक स्वागत करे । श्राचार्यश्रीबप्पभट्टसूरि के उक्त कथन को श्रवण कर क्या राजा और क्या प्रजा, क्या जैन और क्या जैनेतर - सबके सब स्वागत के लिये परमोत्साह पूर्वक तत्पर हो गये । सबने मिल कर प्राचार्यश्री का शानदार जुलूस पूर्वक नगर प्रवेश महोत्सव किया । श्राचार्यश्री बप्पभट्टसूरि स्वयं अपने शिष्य मण्डली सहित सूरिजी के सम्मुख आये । और कक्कसूरीश्वरजी ने भी आपको समुचित सम्मान एवं बहुमान से सम्मानित किया। दोनों श्राचार्यों ने साथ ही में नगर में प्रवेश किया और दोनों ही श्राचार्य स्थानीय मन्दिरों के दर्शन कर एक ही पट्ट पर विराजमान हुए । उक्त दोनों तेजस्वी श्राचार्यों के मुख मण्डल के प्रतिभापुब्ज को देख यही ज्ञात होता था कि नभ मण्डल से सूर्य और चंद्र उतर कर मृत्युलोक में आगये हैं । धर्म देशना के लिये भी आपस में विनय प्रार्थना करने के पश्चात् श्राचार्यश्री कक्कसूरिजी ने मङ्गलमय धर्म देशना देनी प्रारम्भ की। समय के अधिक होजाने के कारण विषय को विशद नहीं करते हुए श्राचर्यश्री ने संक्षिप्त किन्तु हृदय प्राही उपदेश दिया जिसका उपस्थित जनता पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा । आचार्यश्री बभट्टसूरिजो म० जैन संसार के एक असाधारण विद्वान थे पर आचार्यश्री कक्कसूरि प्रदत्त व्याख्यान को श्रवण कर कुछ समय के लिये आप भी विस्मय में पड़ गये । वे विचारने लगे कि--इतने दिवस पर्यन्त तो श्राचार्यश्री ककसूरिजी की महिमा केवल कानों से ही सुनता था पर श्राजके प्रत्यक्ष मिलाप ने तो कानों से सुनी हुई प्रशंसापेक्षा आचार्य ११३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only भट्टसूरि की मेट www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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