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________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८ से १२३७ साधुओं से नहीं किया जा सकते हैं । काम पड़ने पर वे धर्म के उत्कर्ष के लिये अपने प्राणों का बलिदान करने में भी हिचकिचाहट नहीं करते थे । यद्यपि वे राजशाही शान शौकत से रहते होंगे तथापि माया कपट रूप मिथ्यात्व के मूल कारणों का तो स्वप्न में भी स्पर्श नहीं करते। जो कुछ वे करते लोक प्रत्यक्ष ही करते लुक छिप कर मुनिगुरण विघातक कृत्यकर समाज के सामने पवित्रता का दम भरना उन्हें पसंद नहीं था । यदि वे चाहते तो आज के साधु समाज के समान बाह्य पवित्रता को रख कर समाज को अपनी पवित्रता का खा देते ही रहते परन्तु ऐसा करना उन्हें मिथ्यात्व का पोषण करना ही प्रतीत हुआ । दूसरे वे शिथिल थे वो जैनधर्म के सख्त नियमों की अपेक्षा से ही न कि दूसरे मतावलम्बी साधु सन्यासियों की अपेक्षा से । इन साधु नाम धारियों की अपेक्षा तो उनका त्याग सहस्रगुना उत्कृष्ट एवं उत्तम था । उनके पूर्वाचार्यों का तो जैन समाज पर अपार उपकार था श्रतः उनकी परम्परानुसार व उनके गुणों की उत्कर्षता के कारण चैवासियों का उस समय तक अच्छा मान था । उस समय की यह तो एक अलौकिक विशेषता ही थी कि सुविहित एवं शिथिलाचारी दोनों श्रमणों के विद्यमान होने पर भी परस्पर एक दूसरे के साथ द्वेष रखने, निंदाकरने, खण्डनमण्डन करने, उत्सूत्र प्ररूपित कर नया पन्थ निकालने या एक दूसरे को हीन बताकर समाज में फूट एवं कलह के बीज बोने के स्वप्न भी किसी को नहीं आते थे । उप्रविहारी श्रमण - शिथिलाचारियों को मार्ग स्खलित बन्धु ही समझते थे । यही कारण था कि, यदा कदा समयानुकूल सदा ही वे उन्हें आचार विचार की दृढ़ता के विषय में प्रेरित करते रहते पर समाज के एक आवश्यक अङ्ग को काटने का साहस नहीं करते; जैसा कि श्राज मोड़े बहुत मतभेदों में भी प्रत्येक्ष देखने में आता है । वे लोग स्थान २ पर श्रमण सभाएं कर उनको उनके कर्तव्य की ओर अभिमुख करते जिसको चैत्यवासी ( शिथिलाचारी ) भी हितकारक ही समझते । इन सभी कारणों से ही शासन की अपूर्व संगठित शक्ति विधर्मी वादियों से छिन्न भिन्न नहीं की जा सकी । श्राचार्यश्री कक्कसूरीश्वरजी म. के शासन के समय जैन की संख्या करोड़ों की थी। छोटे, बड़े, सब रामनगरों में सर्वत्र चैत्यवासियों का ही साम्राज्य था। क्या सुविहित और क्या शिथिलाचारी ? प्रायः तब चैश्य में ही ठहरते थे । यदि किसी चैत्य में अनुकूल सुविधा न होने के कारण पौषधशाला या उपाश्रय में श्री ठहरते तो भी किसी प्रकार का आपस में विरोध नहीं था । इस प्रकार के ऐक्य के ही कारण वे समाज कारक्षण, पोषण एवं वर्धन कर सके थे । वादी, प्रतिवादियों को पराजित कर विजयी बने थे । राजा महा[जाओं पर अपना प्रभाव जमा कर जैनधर्म की सुयशः पताका को सर्वत्र फहरा सके थे । यदि ऐसा नहीं रके वर्तमान साधु समाज के समान अपने गौरव एवं महत्व के लिये आपस में ही लड़ मरते तो समाज की आज न मालूम क्या श्रवस्था होती ? 1 श्राचार्य भी ककसूरिजी म. बालब्रह्मचारी थे । आपकी कठोर तपश्चर्या एवं श्रखण्ड ब्रह्मचर्य के भाव से जया, विजया, सच्चायिका, सिद्धायिका, अम्बिका, पद्यावती, लक्ष्मी और सरस्वती देवियां प्रभावित होश्रपश्री की उपासना एवं सेवा करने में अपना अहोभाग्य समझती थी । इस तरह आपका प्रभाव चतुर्दक में चन्द्र चन्द्रिका वत् विस्तृत होगया था। साधारण जनता ही क्या ? बड़े २ राजा महाराजा भी आपके रणों की सेवा लाभ ले अपने को भाग्यशाली समझते थे । आपका विहार क्षेत्र बहुत विशाल था । मरुधर मेदपाट, श्रावन्तिका बुदेलखण्ड, मत्स्य, शूरसेन, सुविहित और शिथिलाचारी Jain Education International 903 For Private & Personal Use Only ११३७ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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