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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ अपने पिच्छे रहे हुए धन दिलाया और कहाकि 'जो भारत में ही नहीं पर पाश्चात्य प्रदेशों में यथ्याबद्ध चलता था और उसमें वे पुष्कलद्रव्योपार्जन करते थे यही कारण है कि वे एक एक धर्म कार्य में लाखों करोड़ों द्रव्य लगाकर जैनधर्म की वृद्धि एवं प्रभावना किया करते थे उन व्यापारियों में विरहट गौत्री दिवाकर शाहा ऊमा भी एक था आपका व्यवसाय वहुत विशाल था श्राप के १२ पुत्र र ८ पुत्रियां तथा और भी बहुतसा कुटम्ब परिवार था आपका व्यापार भारत के अलावा पाश्चात्य प्रदेशों में भी था कई द्वीपोंमें तो आपकी दुकानें भी थी अर्थात शाह ऊमा एक प्रसिद्ध पुरुष था शाह ऊमाके गृहदेवी का नाम था नाथी शाहऊमाके १२ पुत्रों में एक सारंग नाम का पुत्र बड़ा ही भाग्यशाली एवं होनहा था सारंग व्यापारार्थ कई वार विदेशों की मुसाफरी कर आया था और उसने करोड़ों रुपये व्यापार में पैदा भी किये था एकबार सारंगने जहाजों में करोड़ों रुपयों का माल लेकर विदेशमें जाने के लिये प्रस्थान कर दिया जब उनकी जहाज समुद्र के बीचआई तो एक दम समुद्र तूफान पर आ गया सारंगने सोचाकी वायु वगैरह का कोई भी कारण नहीं फिर यह उपद्रव क्यो हो रहा है ? सारंग अपने धर्म में खूबदृढ़ श्रद्धावाला था देव गुरु धर्म पर उसका पूर्ण विश्वास था देवी सच्चायिका का श्रापको इष्ट भी था जहाजों के सब लोग घबराने लगे और वे चल कर सारंग के पास आये सारंग ने उन अधीर लोगों कों धैर्य दिलाते हुए कहा महानुभावों ! आप जानते हो कि “जं जं भगवयाद्दीद्वा तं तं पणमिसन्ति” इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो जो भगवान भाव देखा है वह तो हुए विगर नहीं रहेगा फिर सोच किक्र करने से क्या होने वाला है व्यर्थ श्रार्तध्यानकर कर्म क्यों बांधा जाय । जहाज के लोगों ने अपने कुटम्ब की चिन्ता का हाल सारंग को सुनाया। सारंग ने उन सब को पुनः धैर्य होता है वह अच्छे के लिये होता है" किसी ने कहा सेठ साहिब श्रापका कहना भले ठीक हो परन्तु केवल निश्चय पर बैठ जाने से ही काम नहीं चलता है पर साथ में उद्यम भी तो करना चाहिये । सारंग ने कहा कि उद्यम भी तो निश्चय के पीछे ही होता है मैं ठीक कहता हूँ कि "जो होता है वह अच्छे के लिये ही होता है" लीजिये मैं आपको एक उदाहरण सुनाता हूँ बसंतपुर नगर के राजा जयशत्रु की किसी समय हाथ की एक अंगुली कटगई जिसके लिये राज सभा के लोगों ने बहुत फिक्र किया परन्तु राजाके एक शुभचिन्तक मंत्री के मुंहसे सहसा निकल या "जो होता है वह अच्छे के लिये" सौ सज्जनों में एक दो दुर्जन भी मिल जाते है अतः एक दुर्जन ने राजा से कहा कि आपकी अंगुली कटजाने का सबको दुःख है पर आपके शुभचिन्तक मंत्री को थोड़ा भी दुःख नहीं हुआ है इतना ही क्योंपर मंत्री तो श्रापकी अंगुली कटने को अच्छा बतलाता है इस पर राजा मंत्री पर नाराज हो गया किन्तु राजा के हृदय में मंत्री के लिये इतना स्थान अवश्य था कि मंत्री ज्ञानी है शास्त्रों का जानकार एवं धर्मीष्ट है अतः वह मंत्री को कुच्छ भी नही कहसका । एक समय राजा एवं मंत्री जंगल की ओर हवा खोरी के लिये गये पर वे एक उजाड़ में जा पड़े तो राजाको प्यास लगी मंत्री राजा को एक माड़ की शीतल छाया में बैठाकर आप पानी लेने को गया । भाग्यवशात् उस ही दिन देवी की कमल पूजा थी शूद्र लोग एक बतीस लक्षण वाले पुरुष की खोज में घूम रहे थे वे चलते चलते राजा के पास आये और राजा की सूरत देख निश्चय कर लिया कि यह बतीस लक्षण वाला पुरुष देवी को बलि देने योग्य है वस घातकी लोग राजा को पकड़ कर देवी के मन्दिर पर ले आये उस जंगल में सैकड़ों निर्दय दैत्यों के सामने राजा कर भी तो क्या सकता था ? परन्तु पिच्छे से मंत्री ने आकर देखा तो राजा नहीं उसने उत्पातिक बुद्धि से सब हाल जान लिया उसने दूर से ही वेश छोड़ कर एक भीलसा रूप बना कर देवी के मन्दिर में चला गया और Jain Educa९६mational For Private & Personal use [ सारंग की प्रतिज्ञा और देव का उपसर्ग www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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