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________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] ] भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इसी प्रकार आपस में संघर्ष बढ़ने से पुनः संसार क्लेशमय बन गया । फूट कुसभ्य, की भट्टियें सर्वत्र धक-धक करने लगी । इस विप्लव काल में ब्राह्मणों ने कई गौत्र जाति, उपजातियाँ और वर्णशंकर जातियां भी बना डाली | जिससे जनता का संगठन चूर-चूर हो गया और जन समाज में छोटे-छोटे समुदाय बन गये । प्रेम सम्प का स्थान शत्रुता ने धारण कर लिया । मनुष्य मनुष्य के बीच में वैमनस्य दृष्टिगोचर होने लगा | क्या राजनीति, क्या सामाजिक, क्या धार्मिक अर्थात् सर्वत्र विशृंखना हो टूटी कड़ियों के समान व्यवस्था होगई थी । संसार पतन के पथ पर अग्रसर हो रहा था । जनता शान्ति प्राप्ति के लिए पुनः किसी एक ऐसी शक्ति की प्रतिक्षा कर रही थी कि पुनः संसार में सुख और शान्ति का साम्राज्य स्थापित करे । इस प्रकार वर्ण व्यवस्था का संक्षिप्त हाल लिख दिया है । आगे क्या हुआ वह आगे पढ़े ! ३ - वंश -- वंशों की उत्पत्ति नामङ्कित महापुरुषों से हुई है जैसे भगवान् ऋषभदेव से इक्ष्वाकवंश भरत के पुत्र सूर्ययश से सूर्यवंश, बहुबल पुत्र चन्द्रश से चन्द्रवंश, हरिवासयुगलक्षेत्र के राजा हरिसेन से हरिवंश, कौरवों से कुरुवंश, पांडवों से पांडुवंश, यदुराजा से यादववंश, शिशुनाग राजा से शिशुनाग वंश, नन्दराजाओं से नन्दवंश, मौर्य राजाओं से मौर्यवंश विक्रम राजा से विक्रम वंश इत्यादि अनेक नामङ्कित पुरुष हुए और उन्होंने जनता की भलाई करने से उनकी संतान उसी पुरुष के नाम पर श्रीलखाने लगी और आगे चलकर वही उनका वंश बन गया। इस समय के बाद भो बहुत से वंश अस्तित्व में आये । ४ - गौत्र -- गौत्रों की उत्पत्ति ऋषियों के क्रियाकांड से हुई थी। जिन-जिन लोगों के संस्कार विधि एवं क्रियाकांड जिन-जिन ब्राह्मणों ने एवं ऋषियों ने करवाये उन उन लोगों पर उन ऋषियों की छाप लग गई और उन उन ऋषियों के नाम पर उनके गौत्र बन गये। बाद में परम्परा से उन गौत्रवालों की संतान पर उनऋषियों की संतान परम्परा का हक्क कायम हो गया । इस प्रकार गौत्रों की सृष्टि उत्पत्ति हुई उन संख्या के लिये कहा जाता है कि जितने ऋषि ब्राह्मण क्रियाकांड करवाने वाले हुए हैं उतने ही गौत्र बन गए जो आज भी ब्राह्मणों के स्वार्थ पूर्ण रजिस्टरों में दर्ज है और कतिपय गौत्रों के नाम जैनधर्म के प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलते हैं जैसे कल्पसूत्र में उल्लेख मिलता है कि काश्यपगोत्र भारद्वाजगोत्र, अग्निवैश्यगोत्र, वाशिष्टगौत्र, गौतमगोत्र, हरितगौत्र, कौडन्यगौत्र, कात्याणगौत्र, बच्छगोत्र, तुगियान गौत्र, मदरगौत्र, प्राचीनगौत्र, एलापाraits, व्याघ्र गौत्र, कौशिकगौत्र, उत्कौशिकगौत्र, बाहुल्यगोत्र इत्यादि । यदि यह सवाल किया जाय कि जैन गौत्रों को नहीं मानते हैं फिर उनके शास्त्रों में गौत्रों के नाम क्यों आए ? इसका कारण यह है कि ऋषियों के गौत्रों वालों ने जैनधर्म स्वीकार कर जैनश्रमरण दीक्षा स्त्रीकार करली थी उनकी पहचान के लिए जैनशास्त्रकारों उनके गौत्रों का उल्लेख जैनशास्त्रों में किया है। दूसरा जैनधर्म वाड़ाबंधन के गौत्र मानने को तैयार नहीं है । पर यह भी नहीं है कि जैन गौत्रों को बिल्कुल नहीं मानते हैं कारण जैनागमों में गौत्र नामका एक कर्म हैं वह भी उच्चगौत्र नीचगौत्र दो प्रकार से है इनके अलावा जाईसम्पन्न कुल सम्पन्ने, उच्चगोत्र, नीचगौत्र इत्यादि । जैनों ने क्या वर्ण क्या गौत्र और क्या कुछ सब कुछ माना है पर उच्चनीच के भेद भावों से नहीं किन्तु पूर्व संचित कर्मानुसार ही माना है जैसे कहा है किकम्णा वम्मणोहो, कम्मुणा होई खत्तिओ । वसो कम्मुणोहोइ, सुद्दो हवइ कम्मुखो || उत्तरा० सू० अ० २५ ॥ ११६० Jain Education International For Private & Personal Use Only वंश और गौत्रों की मान्यता www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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