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________________ आचा कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ इनको न मानने वाला नास्तिक, पापी, अधर्मी और नरक गामी होगा । बस फिर तो कहना ही क्या था, क्षत्रियों धर्म के नामपर मांसमदिरा की छूट मिल गई । वे अपने धर्म को बिलकुल भूल गये । वैश्य वर्ण के लिये ब्राह्मणों इतने कर्म कांड एवं मंत्र, तंत्र और मुहूर्त रच हाले कि थोड़ा सा भी काम वेबिना ब्राह्मणों के स्वतंत्र रूप से कर ही नहीं सकते और यदि वे ब्राह्मणों के बिना कोई काम कर डाले तो उनको न्याति जाति तो क्या पर, संसार मंडल से अलग कर देने की धमकी दी जाती थी। वे किसी हालत में ब्राह्मणों से बच ही नहीं सकते थे । जब दोनों वर्ण ब्राह्मणों के पूरे २ आज्ञा पालक बने गये तो शुद्रों पर होने वाले ब्राह्मणों के अत्याचार के लिये तो कहना ही क्या था । शुद्रों को न तो धर्म करने का अधिकार था न शास्त्र श्रवण करने का और न यज्ञादि का प्रसाद२ पाने का । यदि उपरोक्त अनुशासन में भूल चूक हो जाय तो उनको प्राण दंड दिया जाता था इत्यादि । उस समय विचारे शूद्रों की तो घास फूस के बराबर भी कीमत नहीं थी श्रौ उनको अछूत ठहरा दिये गये थे, वे पग-पग पर ठुकराये जाने लगे । यही कारण है कि जब ब्राह्मणों की अनीति बहुत बढ़ गई और जनता उन्हों से घृणा करने लग गई तब उन ब्राह्मणों के खिलाप में भी साहित्य सृष्टि का सरजन होने लगा । धर्म ग्रन्थों में यह भी कहा गया कि संसार के चराचर प्राणि एक ही वर्ण६ के समझने चाहिये । पर कर्म की अपेक्षा से चार वर्ण बनाये गये हैं । जिनमें सब से उच्चा नंबर क्षत्रियां का और सबसे नीचा नंबर शूद्रों का रखा गया है । पर यदि शूद्र लोग गुणवान् क्रियावान शीलवान् परोपकारी सेवा भावी आदि शुभ कार्य करने वाले हो तो उनको शूद्र क्यों पर ब्राह्मण७ वर्ण में समझ कर उनकी पूजा सत्कार किया जाय और ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेकर नीच एवं चाण्डाल कर्म करता हो वे शूद्रों की ही गिनती में गिने जाते हैं । यदि कोई ब्राह्मण व्यसनरूप चार वेदों को पढ़ लिया पर ब्रह्म८ कर्म एवं शुकु धर्म को नहीं करता है तब तो केवल उनके लिये वेद भार भूत ही हैं और वे मूर्ख शिरोमणि ब्राह्मण संसार मण्डल में गर्दभ रूप ही समझना चाहिये । इत्यादि जनता ठीक समझने लग गई कि कल्याण केवल जातिकुल या वर्ण से ही नहीं है पर कल्याण होता है गुणों से अतः किसी भी वर्ण जाति का क्यों न हो पर कई गुणी है तो वे सर्वत्र पूज्यमान है । इत्यादि - यज्ञ सिदद्यर्थं मनथन्ब्राह्मणान्मुखतोऽसृजन् असृजक्षत्रियान्बाहो । वैश्यनप्यूरु देशात् शूद्रांश्वपाद योसृष्टा तेषां वैवानुपूर्वशः ॥ “ ६० सृ० ॥६३॥ १- अथ हास्य वेदनुपशृण्व तत्र पुजु तुल्यं, श्रोत प्रति पुरण मुदा हरणे, जिह्वा पच्छेदो धारणे भेद | " गोतम सूत्र १९५ ॥ २ - न शुद्रस्य मति दद्यान्नोच्छिष्ठं नह विष्कृतम् । न चास्योपदिथेद्धर्म न चास्य व्रतमादिशेत् ॥ वशिष्ट सूत्र ॥ ४ - यजुर्वेद में अश्वमेघ, गजमेव, नरमेघ, मातृ-पितृ मेघ, अजामेघादि यज्ञों के नाम लिखे हैं । ५ - नियुक्तस्तु यदा श्राद्ध देवे थ मांस मृत् सृजेत् । यावत् पशु रोमाणि तावन्नरक मृच्छन्ति ॥ ( वशिष्ट स्मृति ) ६ - एक वर्ण मिंद सर्व, पूर्वमासी द्य ुधिष्टिरं । क्रियकर्म विभागेन चातुर्वर्णं व्यवस्थितम् ॥ ७ - शुद्रोऽपि शीलसम्पन्नो गुणवान्ब्राह्मणो वेत् । ब्राह्मण ऽपि क्रिया भ्रष्टः शूद्राऽपत्य समोभबेत् ॥ ८ - चतुर्वेदोऽपियो विप्रः शुक्कु धर्म न सेवते । वेदभारधरोमूर्खः स वै ब्राह्मण गर्दभः ॥ शूद्राप्रेष्य कारिण, ब्राह्मणस्य युधिष्टर । भूमावन्नं प्रदातव्यं यथा श्वान स्तथैव स ॥ जातिर्दश्यते राजन् । गुणाः कल्याण कारकाः । वृत्तस्थमपि चाण्डलं तमेव ब्राह्मणं 1 "वेद अंकुश ग्रन्थ से " चारों वर्णों पर ब्राह्मणों की सत्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only ११५९ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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