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वि० सं० ७७८-८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
शुक्लपक्ष का आगमन एवं उजाला होने वाला ही समझा जाता है । यही हाल संसार का हुआ जनता एक एसे सुधारक की प्रतीक्षा कर रही थी कि जो अशांति को मिटा कर शांति स्थापनकरें।
ठीक उसी समय कई शुभचिन्तकों की शीतल दृष्टि दुःख से पीड़ित संसार की ओर पड़ी और उन्होंने किसी भी प्रकार से संसार का सुधार करने का निश्चय किया पर उस समय ब्राह्मणों के विरोध में खड़ा होना एक टेडी खीर थी। अतः उन शुभचिन्तकों ने ब्राह्मणों को साथ में रख कर तथा इनका मान महत्व कायम रख कर संसार को पुनः चार विभागों में विभाजित करना उचित समझा। और उन्होंने ऐसाही किया जिनको लोग वर्णव्यवस्था भी कहते हैं। जैसे कि:
१-ब्राह्मण वर्ण-तुष्टि, पुष्टि और शांति एवं विद्या प्रचार से संसार की सेवा करने वाला २-क्षत्रिय वर्ण-जनता के सदाचार एवं जानमाल की वीरता पूर्वक रक्षा करने वाला क्षत्रिय वर्ण। ३-वैश्य वर्ण-क्रय विक्रय एवं अर्थ से संसार की सेवा करने वाला वैश्य वर्ण । ४-शूद्र वर्ण-शारीरिक श्रम द्वारा संसार की सेवा करने वाला शूद्र वर्ण ।
इस प्रकार वर्ण व्यवस्था कर पुनः शांति स्थापना को । परन्तु इस वर्ण व्यवस्था में ऊंच नीच एवं हलका भारी को थोड़ा भी स्थान नहीं दिया था। मुख्य उपदेश तो सेवा भाव का ही था अपने अपने निर्देश किए हुए कार्यों द्वारा संसार की सेवा की जाय, उस वक्त हुकूमत की अपेक्षा सेवा की ही विशेष कीमत थी। फिर भी उन चारों वर्ण वालों के लिए पारितोषिक रूप में ब्राह्मणों को पूजा, बहुमान, क्षत्रियों को हुकूमत वैश्यों को विलास और शूद्रों को निश्चिन्तता प्रदान की गई थी। इससे कार्य एवं सेवा करने वाले का उत्साह बढ़ता रहे । इस प्रकार संसारभरमें पुनः शान्ति स्थापना करदी पर यह शान्ति चिरस्थायी नहीं रह सकी। कारण ब्राह्मणों का दिल साफ नहीं था । यही कारण था कि आगे चल कर ब्राह्मणों ने चारों वणों की ऐसी भही कल्पना कर डाली कि ईश्वर के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं । अतः संसार में जो कुछ है वह हम ही हैं हमारे मुंह से निकले हुए शब्दों को तीनों वर्ण वाले शिरोधार्य करें । “त्रियवर्णा ब्राह्मणस्य वशवर्तेरत् ।" अर्थात् तोनों वर्णके लोग हमारे ही आधिन रहें हमारी सेवा करें। एवं हमारी आज्ञाका पालन करें । बसफिरतो ब्राह्मण अपनी मनमानी करने में कमी रखते ही क्यों ? यज्ञ, यागादि के नाम पर आप स्वयं मांस भक्षण करना और क्षत्रियों को शिकार खेलना, मांस भक्षण करना तो उनके लिये साधारण कर्त्तव्य ही बन दिया गया, थोड़े कामों में ब्राह्मणोंने लाखों मूक प्राणियोंके कोमलकंठ पर छुरा चला कर अहिंसा प्रधान देश में खून की नदी बहाने लग गये और इस हिंसा कर्म से संसार में सुख शांति राजा का तप, तेज और पशुओं की मुक्ति एवं स्वर्ग पहुँचाने का रास्ता बतलाया। यह भी केवल जबानी जमाखर्च नहीं, वरन् इनबातों के लिये शास्त्रों में श्रुतियां भी रच दीइतना ही क्यों पर भरतराजा के वेदोंके नामभी बदलदिये गये । और ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अर्थवेद नाम रख कर कह दिया की ये चारों वेद ईश्वर कृत हैं।
१-यजनं याजानं दान तथैवाध्यायन क्रिया प्रतिग्रहश्व ध्यायनं विप्र कर्माणी निशात् । २-क्षत्रियस्य विशेषण प्रजाना परिपालनम् । ३-कृषि गौरक्षा वाणिज्यं वेश्यस्यश्च परि कीर्तितम् । ४-शुद्रश्च द्विज शुश्रुषासर्व शिल्पानी नाय्यथा । “कांख स्मृति"
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चार वर्णों की व्यवस्था
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