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________________ आचार्य कक्कसूरी का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ मैं इसके भाव को समझ नहीं सका । अतः आप समझाइये । साध्वी ने कहा -- जैनागमों का अभ्यास करने की गुरु आज्ञा है पर विवेचन कर पुरुषों को समझाने की आज्ञा नहीं है । यदि आपको समझना हो तो हमारे गुरु महाराज अन्यत्र विराजमान हैं वहाँ जाकर समझ लीजिये। भट्टजी विचार करते हुए अपने मकान पर आये और शेष गत्रि वहीं व्यतीत की। बाद प्रातः काल नित्य क्रिया से निवृत्त हो घर से निकले कि पहिले तो वे जिनमन्दिर में आये। वहां भगवान की प्रतिमा को देख कर हर्ष के साथ प्रभु की स्तुति की "वपुरेव तवाचष्टे भगवन् वीतरागताम् । नहि कोरट संस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाहलः॥ बाद में अपनी जिन्दगी को निरर्थक समझते हुए मण्डप में विराजमान आचार्यश्री को देख उसके दिल में अच्छे भाव उत्पन्न हुए कि ये सभ्यता के सागर अवश्य वंदनीय हैं। पर आप थे ब्राह्मण-बस! सूरिजी के समीप आकर क्षणभर स्तब्ध खड़ा होगये । आचार्यश्री ने भटजी को देख मन में विचार किया कि ये तो वे ही ब्राह्मण हैं जो अपने आपको अभिमान पूर्वक विद्वान कह कर हस्ति के भय से जिनमन्दिर में श्राकर प्रभु की मूर्ति का उपहास किया था। हो सकता है, उस समय इनकी दसरी भावना होगी पर इस समय तो इनके हृदय ने अवश्य ही पलटा खाया है । इसी से इन्होंने अादर पूर्वक जिन स्तुति की है। खैर, देखें आगे क्या होता है ? थोड़े समय पश्चात् सूरिजी ने बड़े ही मधुर शब्दों में कहा-अनुपम बुद्धि निधान महानुभाव ! आप कुशल तो हैं न ? बतलाइये यहां आने का क्या प्रयोजन है ? हरिभद्र ने उत्तर दिया-पूज्यवर ! क्या मैं बुद्धि निधान हूँ ? अरे ! मैं तो एक वृद्ध साध्वी की एक गाथा के अर्थ को भी नहीं समझ सका अतः आप ही कृपा कर उस गाथा का अर्थ समझाइये । सूरिजी ने गाथा का अर्थ समझाते हुए कहा - "प्रथम दो चक्रवर्ती हुए, पीछे पांच वासुदेव, पीछे पांच चक्रवर्ती पीछे एक वासुदेव और चक्री, उसके बाद केशव और चक्रवर्ती, तत्पश्चात् केशव और दो चक्रवर्ती बाद में केशव और अन्तिम चक्रवर्ती हुए" गाथा का सम्पूर्ण अर्थ समझाते हुए आचार्यश्री ने कहा-हे शुभमति । अगर जैनागमों के सम्पूर्ण ज्ञान की अभिलाषा हो तो आप भगवती दोक्षा स्वीकार करो जिससे अपनी आत्मा के साथ दूसरों की आत्मा का कल्याण करने भी समर्थ हो जावो। सूरिजी के थोड़े से ही सारगर्भित उपदेश ने भट्टजी की भाद्रिक आत्मा पर इस कदर प्रभाव डाला कि हरिभद्र ने अपने दुराग्रह एवं परिग्रह का त्याग कर दिया और अपने कुटुम्बियों की अनुमति लेकर आचार्यश्री के चरण कमलों में जैन दीक्षा स्वीकार करली । बस, फिर तो था ही क्या ? मुनि हरिभद्र, पहिले से ही विद्वान थे अतः उनके लिये जैनागमों का अध्ययन करना तो लीला मात्र ही था। वे स्वल्प समय में ही सर्वगुण सम्पन्न होगये । आचार्य श्री ने भी उनको सब तरह से योग्य जान कर सूरिपद दे अपने पट्ट पर स्थापित कर दिया । तत्पश्चात् आचार्यश्री हरिभद्रसूरि अपने चरण कमलों से पृथ्वी मण्डल को पावन बनाते हुए भव्य जीवों का उद्धार करने लगे। एक समय हरिभद्रसूरि ने अपनी बहिन के पुत्र हंस और परमहंस को दीक्षा देकर अपने शिष्य बना लिये । उनको जैनागमों का अभ्यास करवा कर प्रकाण्ड पण्डित बनवा दिया पर उनको इच्छा बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन करने की हुई एतदर्थ उन्होंने गुरु महाराज से आज्ञा मांगो। आचार्यश्री ने भविध्य कालीन अनिष्ट जानकर आज्ञा नहीं दी पर इसका निषेध ही किया और कहा ऐसे विरह को मैं सहन हरिभद्र का गर्व-जिनस्तुति १२१९ Jain Educ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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