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वि० सं० ७७८ से ८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास
गुरुभ्राता नन्नसूरि के तो सिंहासन पर छत्र चामर होना भी लिखा था फिर भी आप चैत्यवासी होते हुए भी जैनधर्म का प्रचार करने में प्राण प्रण से कटिबद्ध रहते थे तथा गज सभा में वादियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजय विजयंति सर्वत्र फहराने में एवं जैनधर्म का उद्योत करने में वे सदैव संलग्न रहते थे तब ही तो ग्रन्थ कारने आपश्री को प्रभाविक आचार्यों की गणना में गिन कर प्रभाविक पुरुषों में स्थान दिया है । इधर तो श्राम राजा के परम मानिता आचार्य श्री बप्पभट्टिसूरि थे तब उधर लाटगुजरात और सौराष्ट्र में वनराज चावड़ा के गुरु आचार्य शीलगुणसूरि जैसे अतिशय प्रभावशाली प्राचार्य-जैसे बंबई कल. कुत्ता के दोनों लॉट हो तथा उपकेशगच्छाचार्यों का सर्वत्र भ्रमण एवं प्रचार इन प्रखर विद्वानों के सामने स्वामी शंकराचार्य और कुमारिलभट्ट जैसों की भी दाल नहीं गल सकी थी अतः उस विकट समय में जैनधर्म को सुरक्षित रखने वाले युग प्रवरों का हमको महान् उपकार समझना चाहिये ।
प्राचार्य श्रीहरिभद्रसरि मेदपाट प्रान्त में भूषण स्वरूप चित्रकूट नामक नगर था जो धन धान्य से और गुणी जनों से समृद्धि शाली स्वर्ग की स्पर्धा करने वाला था । वहां पर जैतारि नाम का राजा राज्य करता था। उसी नगर में चार वेद अठारह पुराण और चौदह विद्या में निपुण हरिभद्र नामक पुरोहित रहता था जो राजा से सम्मानित एवं नगर निवासियों से पूजित था। उसको अपनी विद्वता का इतना गर्व था कि वह पेट पर स्वर्णपट्ट बांधे रहता और हाथ में जम्बु वृक्ष की लता रखता । साथ ही एक कुदाला, जाल और निःश्रेणी भी रक्खा करता था। पूछने पर वह कहता-विद्या से मेरा पेट न फूट जाय इसलिये उदर पर पाटा तथा जम्बुद्वीप में मेरे से कोई वाद करने वाला वादि नहीं इसके लिये जम्बुलता रखता हूँ । वादी यदि पाताल में चला जाय तो कुदाला से खोदकर निकाल लाऊं और आकाश में चला जाय तो निश्रेणी से पैर पकड़ कर ले आऊं। इस प्रकार हरिभद्र पुरोहित गर्व सूचक चिन्ह अपने पास में रखता था । इतना होने पर भी उसने एक भीषण प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि जिस किसी के शास्त्र का अर्थ मैं न समझंगा तो मैं उसका शिष्य हो जाऊंगा क्योंकि हरिभद्र अपने आपको सर्वज्ञ समझता था।
एक दिन पं० हरिभद्र अपने छात्रों के साथ बड़े ही आडम्बर से राज मार्ग में जा रहा था। इतने में एक मदोन्मत्त हाथी आ गया । कष्ट के भय से हरिभद्र चल कर जैन मन्दिर के द्वार पर जा पहुँचा । मुँह ऊंचा करते ही त्रिलोक पूज्य तीर्थकर देव को शान्तमुद्रा प्रतिमा उसके देखने में आई पर तत्व के अज्ञात भट्टजी ने तत्काल एक श्लोक बोला
वपुरेव तवाचेष्टे स्पष्टं मिष्टान्न भोजनम् । नहि कोटर संस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाद्वलः ॥
इतने में हस्ति अन्यमार्ग से चला गया और हरिभद्र च न कर अपने मकान पर आ गया। बाद कभी एक दिन वह बहुत आडम्बर के साथ बाहिर जा रहा था कि रास्ते में एक साध्वी का उपाश्रय आया। उसमें याकिनी साध्वी एक गाथा उच्च स्वर से याद कर रही थीचक्किदुगं हरिपणगं, पणगं चक्कीणकेसवो चक्की। केसव चक्की केसव दु, चक्की केसीय चक्कीय ॥
__ हरिभद्र ने गाथा सुन कर विचार किया तो उनको अर्थ नहीं जचा कारण एक तो गाथा प्राकृत की दूसरा संकेत सूचक सभास था । अतः उसने साध्वी से कहा माता ! यह चक चक क्या कर रही हो ? १२१८
आचार्य श्रीहरिभद्रसूरीः
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