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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० ११७८-१२३.५
बढ़ जाने के भय से हम एत द्विषयक सविशेष स्पष्टीकरण न करते हुए इतना ही लिख देना समीचीन समझते कि आचार्यश्री नन्नसूरि की प्रकाण्ड विद्वत्ता के लिये राजा आम को बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि जैनों में ऐसे २ विद्वान् विद्यामान है कि जिसकी बराबरी करने वाले किसी दूसरे मत में नहीं मिलते हैं।
___एक दिन एक नट का टोला आया जिसमें एक मातङ्गी बड़ी स्वरूपवान् थी । इसको देख राजा श्राम उस पर मोहित होगया और उससे मिलने का प्रयत्न करने लगा। इस बात का पता जब बप्पट्टिसूरि को लगा तो उनको राजा की इस अविवेकता पर बहुत ही पश्चाताप हुभा । वप्पभट्टि सूरि राजा के निर्दिष्ट स्थान पर जाकर समीपस्थ एक पत्थर पर इस तरह का बोधप्रदायक काव्य लिखा कि जिसको राजा ने पढ़ा तो उसको इतनी लज्जा आई कि वह चिता बना कर अग्नि में जल जाने की तैयारी करने लगा । पुनः सूरिजी को चिता की बात मालूम हुई तो वे चल कर राजा के पास आये और इस प्रकार उपदेश दिया कि वेद श्रुति स्मृति के विद्वानों को एकत्रित कर मातंगी के विषय का मन से लगे हुए पाप का प्रायश्चित पूछा । विद्वानों ने मिल कर कहा कि लोहा की पुतली को तपाकर उसका आलिंगन करने से पाप की शुद्धि होती है । राजा ने लोह की पुतली बनाकर उसको अग्नि में लाल कर आलिङ्गन करने को तैयार हुअा। इतने में पुरोहित तथा आचार्यश्री ने श्रार राजाकी भुजाओं को पकड़ते हुए कहा बस मन का पाप मन से ही स्वच्छ हो गया । इत्यादि । राजा को बचा लेने से नगर में बड़ा ही हर्ष हुश्रा । नागरिकों ने नगर शृङ्गार कर आचार्यश्री को हस्तिपर आरूढ़ करवा कर महामहोत्सब पूर्वक नगर प्रवेश करवाया।
एक दिन सूरिजी ने कहा हे राजन ! श्रात्म-कल्याण करना चाहो तो जैनधर्म का शरण लो। इस पर गजा ने कहा--गुरु जी ! पूर्व परम्परा से चला आया धर्म में कैसे छोडू ? यदि आपके पास विद्वता है तो आप मथुरा जाकर वैराग्याभिमुख वाक्पतिराजा को जैनधर्म स्वीकार करावें । राजा ने अपने विद्वानों को एवं मन्त्रियों को तथा सामन्तों को साथ दे दिये अतः आचार्यश्री चल कर मथुरा आये और बाहराजी के मन्दिर में वाक्पतिराज थे उन से मिले । पहिले तो ब्रह्मा विष्णु और महादेव की यथा गुण स्तुति कर वाक्पति राज को समझाया जिससे उसने देव गुरु धर्म का स्वरूप सुनने की इच्छा गट की। आच र्यश्री ने वाक्पति राज को शुद्ध देव गुरु धर्म का सरूप समझाया तत्पश्चात् वाक्पतिराज ने प्रश्न किया हे गुरु ! मनुष्य लोक से जीव मोक्ष में जाते हैं तब कभी सब जीव मोक्ष में चले जावेंगे और मोक्ष में स्थान भी नहीं मिलेगा। गुरु ने कहा- हे भव्य ! ऐसा कभी नहीं होता है । दृष्टान्त स्वरूप स्थल की सब नदियों रेत खेंचती हुई समुद्र में जाती हैं परन्तु आज पर्यन्त न रेती कम हुई है और न समुद्र ही भरा गया है। यही न्याय संसार के जीवों का भी समझ लीजिये । इस प्रकार कहने से वाक्पतिराज को अच्छा सन्तोष हुआ और गुरु के साथ भगवान् पार्श्वनाथ के मन्दिर में जाकर उसने मिथ्यात्व का त्याग किया व शुद्ध सनातन जैनधर्म को स्वीकार किया। अठारह पाप व चार अाहार का त्याग कर अनशन व्रत स्वीकार कर लिया । अहित, सिद्ध, साधु
और धर्म का शरण एवं पञ्च परमेष्ठि के ध्यान में १८ दिन तक अनशन व्रत की आराधना की । आचार्य बप्पभट्टिसूरि जैसे सहाय देने वाले थे अतः वाक्पतिराज पण्डित्य मरण मर कर देवयोनि में उत्पन्न हुए।
पूर्व जमाने में नंदराजा द्वारा स्थापित शान्तिदेवी है । वहां जिनेश्वरदेव को वन्दनकरने सूरिजी गये और शान्तिदेवी सहित जिनेश्वरदेव कीस्तुति की वह आज भी 'जयति जगद्क्षाकर' के नाम से प्रसिद्ध है ।
सूरिजी मथुरा से राजपुरुषों के साथ कन्नौज पधारे । राजा ने पहिले ही से अपने अनुचरों से सब राजा आम नटणी से मोहित-प्रायश्चित
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