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________________ वि० सं० ५२०-५५८] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और न लिखने की। कारण पुस्तकों को लिखने के लिये उनके साधनों की याचाना करना, उन्हें सम्भाल कर सुरक्षित रखना, पुस्तकों को बांधना छोड़ना यह सब उन निर्ग्रन्थों के लिये संयम का पलिमंथु अर्थात् चारित्र गुण विधतक कहा जा सकता है । उक्त विषय का स्पष्टीकरण करते हुए शास्त्रकार फरमाते हैं :-- ___ "पोत्थग जिण दिट्टतो वग्गुर लेव जाल चेक्क य" निशीर्ण चूर्णी अर्थात्-शिकारियों के जाल में फंसा हुआ मृग, मच्छ, तथा घृत तैलादि द्रव्यों में पड़ी हुई मक्षिका तो येन केन पायेन निकल सकती है किन्तु पुस्तक रखने रूप पाश में फंसा हुआ जीव कदापि विमुक्त नहीं हो सकता है । इससे शायद शास्त्रकारों का अभिप्राय यह हो कि मृग, मच्छ एवं मक्षिकादि जीव तो अपने २ प्राण बचाने के लिये पाश के संकट से बच सकते हैं किन्तु पुस्तक रखने वाले श्रमणों को ऐसा दुःख एवं संकट नहीं हैं अतः वे अधिक से अधिक ममत्व के कीचड़ में फंसते जाते हैं * इस प्रकार मनाई होने पर भी यदि कोई साधु पुस्तकें रक्खे तो शास्त्रकारों ने उसके लिये सख्त दण्ड का विधान किया है :-- 'जत्तिय मेता वारा मुंचति बन्धति व जत्तिय वारा । जति अक्खराणि व लिहति तति लहुगा जं च आवज्जे ॥' निशीथ चूर्णी इससे स्पष्ट है कि साधु पुस्तकें रक्खे या जितनी बार बांधे छोड़े उतनी बार साधु को लघु प्रायश्चित आता है । आगे देखिये। "पोत्थएम घेप्पंतएसु असंजमो भवई" दशवकालिक चूर्णी अर्थात्--पुस्तकें रखने से असंयम होता है । जब पुस्तकें रखने या लिखने की सख्त मनाई है तो क्या सब ही साधु प्रज्ञावन विद्वान ही होते थे कि शास्त्रीय सबज्ञान वे कण्ठस्थ रख सकते थे ? ___ सब जीवों के कर्मों का क्षयोपशम एकसा नहीं होता है पर उसमें बुद्धि भेद से तारतम्य रहता ही है। फिर भी छठे गुण स्थान को स्पर्श करने वाले को दीक्षा क्या वस्तु है ? इतना ज्ञान तो होता ही है। जिसको दीक्षा का स्वरूप ही मालूम नहीं उसको दीक्षा देना शास्त्र विरुद्ध है । हम देखते हैं कि उस समय साधु तो क्या पर साध्विय भी एका दशांग पढ़ती थी : जैसे-देवानन्दादि साध्या के लिये - ___“समाइमाइ एक्कारस्सांग अहिजइ" श्री भगवतीस्त्र" जब साध्विय ही एकादशांग पढ़ती थी तब साधुओं का तो कहना ही क्या था ? वे तो एकादशांग के अलावा चौदह पूर्व का अध्ययन भी करते थे । इनके अलावा अष्ट प्रवचन पढ़ने के लिये आराधिक होते थे पर यह सब ज्ञान कण्ठस्थ ही रखते थे। यदि उस समय किसी अल्पज्ञ को भी दीक्षा दी जाती तो वह अकेला नहीं रह सकता था। जैन श्रमणों के लिये गण कुल, संघ की व्यवस्था भी इसी उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर की गई थी। इनके अग्रगण्य पुरुष आचार्य कहलाते थे जैसे गणचार्य, कुलाचार्य, वाचनाचार्य ® त्रिकाल दर्शी शास्त्रकारों का कथन भाज सोलह आना सत्य हो रहा है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि केवर मंदबुद्धि एवं वाचना से ज्ञानवृद्धि के हेतु पुस्तकें रखना स्वीकार करने वालों की संतानों के पास लाखों रूपयों की पुस्त मौजूद हैं जिनका न तो आप उपयोग करते हैं और न किसी को पढ़ने के लिये ही देते हैं। पर उन पुस्तकों के भन्द असंख्य कीड़ों का कल्याण (1) अवश्य होता है६४४ [भ० महावीर की परम्पर Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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