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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० ९२०-९५८
पराजित किया था। अतः आपका समय वीर निर्वाण की नवमी शताब्दी और विक्रम की पांचवी शताब्दी मानना युक्ति संगत है । प्रस्तुत मल्लवादी सूरि ने ही न्यचक्र प्रन्थ की रचना की थी। यद्यपि वह प्रन्थ वर्तमान में कहीं नहीं मिलता है पर उस पर लिखी हुई टीका तो आज भी मिलती है । प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने भी अपने प्रन्थों में मल्लवादी का नामोल्लेख किया है।
एक मल्लवादी विक्रम की दसवीं शताब्दी में हुए । उन्होंने बौद्ध प्रन्थ धम्मोत्तर पर टीका रची थी। शायद बाद में और भी मल्लवादी नाम के प्राचार्य हुए होंगे पर यहां पर तो पहिले मल्लवादी का समय लिखना है अतः अोपका समय विक्रम की पांचवी शताब्दी है। शेष के लिये आगे-~
जैनागमों को पुस्तकों पर लिखनापूर्व जमाने में आगमों को पुस्तक पर लिखने की परिपाटी के विषय में हमने आगम वाचना प्रकरण में बहुत कुछ स्पष्टीकरण कर दिया है पर वे जितने भागम लिखे गये थे; एक तरफ की वाचना के अनुसार ही लिखे गये थे । जब श्री क्षमाश्रमणजी एवं कालकाचार्य के श्रापस के मतभेद का समाधान हो गया तो उन दोनों वाचना को एक करके पुनः आगमों को पुस्तक रूप में लिखवा दिये गये। यह बृहद कार्य कितने समय पर्यन्त चला होगा इसके लिए निश्चयात्मक तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता पर अनुमानतः कई वर्षों तक चला होगा। यह कार्य केवल श्रमणों द्वारा ही नहीं पर वैतनी लहियों के द्वारा भी करवाया गया होगा । पर दुःख है कि उस समय का लिखा हुआ एक आगम या एक पत्र भी आज उपलब्ध नहीं होता है । इसका एक मात्र कारण यही हो सकता है कि मुसलमानों ने धर्मान्धता के कारण भारत का अमूल्य साहित्य नष्टभ्रष्ठ कर डाला। इससे भी अधिक दुःख तो इस बात का है कि कितना हमारा उपयोगी प्राचीन साहित्य हम लोगों की बेपरवाही के कारण ज्ञान भण्डारों में ही सड़ गया। जो कुछ हुआ सो तो हो गया पर अब भी रहे हुए साहित्य की सम्भाल रखें तो हमारे लिये इतना ही पर्याप्त होगा।
___"णमो सुयदेव या भगवईए" अहाहा ! उन शासन शुभचिन्तकों की कितनी दीर्घ दृष्टि थी कि सैकड़ों वर्षों से चले आये जटिल मतभेद को मिटा कर पृथक २ हुए दो पक्षों को मिनटों में एक कर दिये । यों तो हम दोनों अधिनायकों का हृदय से अभिनंदन करते हैं। पर विशेष ये पूज्य कालकाचार्य की क्षमावृत्ति को कोटि २ वंदन करते हैं । यदि इसी तरह के उदार क्षमाभावों का हमारे पामरप्राणियों के हृदय में थोड़ा भी संचार हो जाय तो शासन का कितना हित हो सके ? जो आज हम थोड़ी २ बातों में मतभेद दिखाकर शासन के टुकड़े २ करने में अपना गौरव समझ बैठे हैं शासन देव कभी हमको भी सद्बुद्धि प्रदान कर उन महापुरुषों के चरण रज का स्थान बक्सीस करें-यही आन्तरिक मनोभावना है।।
__"जैन श्रमणों ने पुस्तकें रखना कब से प्रारम्भ किया" यों तो श्रागम वाचना प्रकरण में इस विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है पर कुछ जानने योग्य ऐसी बातें भी शेष रह गई हैं कि पाठकों की जानकारी के लिये नीचे लिखी जाती है।
जैन निप्रन्थ निस्पृही एवं निर्मोही होते हैं; अतः न तो उनको पुस्तकें रखने की आवश्यकता ही थी जैन श्रमणों के पुस्तककाल ]
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