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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ इन सब के ऊपर एक संघचार्य होते थे । उन आचार्यों की श्राज्ञा से कुछ साधुओं को लेकर पृथक् विहार करने वाले गणावच्छेदक कहे जाते थे । गणावच्छेदक पद भी किसी गीतार्थ साधुको ही दिया जाता था और वे कम से कम दो साधुओं के साथ विहार करते थे और साथ में रहने वाले साधु को ज्ञान पढ़ा सकते थे । दूसरा कारण यह भी था कि दीक्षा जैसी पवित्र वस्तु की जिम्मेवारी किसी चलते फिरते व्यक्ति को नहीं दी जाती थी किन्तु आत्मकल्याण की उत्कृष्ट भावना वाले एवं साधुत्वावस्था के लिये आवश्यक ज्ञान को करने वाले व्यक्ति को ही दीक्षा दी जाती थी । अतः उनको पुस्तकें लिखने या रखने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती थी । आर्य भद्रबाहु के समय द्वादश वर्षीय दुष्कालान्तर पाटलीपुत्र में एक श्रमण सभा की गई जिससे, श्रागत मुनियों के अवशिष्ट कंठस्थ ज्ञान का संग्रह कर एकादशांग की संकलना की गई। दिष्टिवाद नामक बारहवां अंग किसी को कंठस्थ नहीं था अतः साधुओं के एक सिंघाड़े को नेपाल भेज भद्रबाहु स्वामी को बुलाया गया । * आर्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को दश पूर्व सार्थ एवं चार पूर्व मूल ऐसे चौदह पूर्व का . अभ्यास करवाया। यहां तक तो जैन साधुओं को सब ज्ञान कण्ठस्थ ही रहता था अतः पुस्तकादिक साधनों की जरूरत ही नहीं थी । आगे चलकर आर्य महागिरि एवं सुहस्ति के समय तथा उनके बाद आर्य वज्रसूरि + एवं वज्रसेन के समय ऊपरोपरि दुष्काल पड़ने से साधुओं को भिक्षा मिलनी भी दुष्कर हो गई थी तो उस हालत में शास्त्रों का पठन पाठन बंद हो जाना तो स्वाभाविक बात ही थी। इतना ही नहीं पर बहुत से गीतार्थ एवं अनुयोग घर भी इस कराल दुष्काल- काल के कवल बन गये थे । तथापि दुष्कालों के अन्त में सुकाल के समय आगमों की वाचना बराबर होती रही। श्री आर्य रक्षित ने अवशिष्ट श्रागमों को चार विभागों में विभक्त किये, † तथाहि - १ द्रव्यानुयोग २ गणितानुयोग ३ चरण करणानुयोग ४ धर्मकथानुयोग । इनके पूर्व एक ही सूत्र के अर्थ में चारों अनुयोगों का अर्थ हो सकता था पर अल्पज्ञों की प्रज्ञा मंदता को ध्यान में रख श्रमणों की अर्थ सुलभता के लिये चारों अनुयोग पृथक २ कर दिये जो अद्यावधि विद्यमान हैं | युगप्रधान पट्टावली के अनुसार आपका समय वीरात् ५८४ से ५९७ का है । श्री के पूर्व भी कहीं २ पर आगम लिखने का उल्लेख मिलता है । जैसे श्राचार्य यदेवसूरि के समय आगम वाचना और पुस्तक लिखने का उल्लेख मिलता है। यही नहीं पट्टावलियों के लेखानुसार + वीर स्वामिनो मोक्षंगतस्य दुष्कालो महान् संवृतः । ततः सर्वोऽपि साधुवर्गः एकत्र मिलितः । भणितं च परस्परं कस्य किमागच्छति सूत्रं ? यावन्न कस्यापि पूर्वाणि समागच्छान्ति । ततः श्रावकै र्विज्ञाते भणितं तैः यथा कुत्र साम्प्रतं पूर्वाणि संति ? तैर्भणितम् - भद्रव हु स्वामिनि । ततः सर्व संव समुदायेन पर्यालोच्य प्रेषितः तत्सभीपे साधु संवादकः इत्यादि ॥ " जीवानुशासन गाथा ८४ की टीकासं पृष्ठ ४५ + इतोय वरसामी दक्खिणावहे विहरति । दुब्भिक्खंच जायं बारस वरिसगं । सव्वतो समंताछिन्नपंथा । निराधारं जातं । ताहे वइरसामी विज्जाए आहंड पिंडं तद्दिवसं आणोति । आवश्यक चूर्णी भाग १ ला * ततश्चतुर्विधेः कार्योऽनुयोगोऽतः परंमय । त तोंगे पांग मूढाख्य ग्रंथच्छेद कृतागमः ॥ जैन श्रमणों और पुस्तककाल ] Jain Education Interna&00 For Private & Personal Use Only ९४५ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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