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वि० सं० ४००–४२४ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
बता सकता है इसी प्रकार स्वर्ग नरक जिन्होंने स्पष्ट देख कर कथन किया है उनके वचन ही प्रमाण एवं साबुति है । चोरी करने वाले को दंड और सेवा करने वाले की इनाम मिलता है इसी प्रकार पाप करने वाले को नरक और पुन्य करने वाले को स्वर्ग मिले इसमें शंका ही क्या हो सकती है इत्यादि सूरिजी ने बहुत हेतु युक्तियोंकर समझाया परन्तु क्षणक वादी ने कहा कि मैं ऐले परोक्ष प्रमाणकों नहीं मानता हूँ मुझे तो प्रत्येक प्रमाण बतलाओं कि यह स्वर्ग नरक है ?
पास ही में सूरिजी महाराज का एक भक्त बैठा था उसने कहा पूज्य गुरु महाराज यदि श्राप आज्ञा दें तो मैं इसको समझा सकता हूँ। सूरिजी ने कहां ठीक समझाओं । भक्त ने उस क्षणक बादीकों मकान के बाहर ले जाकर उस के मुँह पर जोर से एक लप्पड़ लगाया जिससे वह रो कर चिल्लाने लगा ।
" भक्त ने पुच्छा कि भाई तु रोता क्यों है ?
"क्षणक - तुमने मुझे मारा जिससे मुझे बड़ा ही दुःख हुआ
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"भक्त - भलो थोड़ा सा दुःख को निकाल कर मुझे बतला दें कारण में परोक्ष प्रमाण को नहीं मानता हूँ अतः आप प्रत्यक्ष प्रमाण से बतलावें की दुःख यह पदार्थ है !
"क्षणक - अरे दुःख कभी बतलाया जा सकता है यह तो मेरे अनुभव की बात है
"भक्त - जब आप हमारे अनुभव की बात नर्क स्वर्ग को नहीं मानते हो तो हम आपके अनुभवकी बात कैसे मान लेंगे? दूसरा आप मुझे उपालम्ब भी नहीं दे सकते हो कारण आपकी मान्यतानुसार आत्मा क्षण-क्षण में उत्पन्न एवं विनाश होती हैं अतः लप्पड़ की मारने वाली आत्मा विनाश होगई और जिसके लपड़ की मारी थी वह आत्मा भी बिनाश होगई इसलिये आपको दुःख भी नहीं होना चाहिये क्योंकि आपकी और मेरी आत्मा नयी उत्पन्न हुई है विनाश हुई आत्मा का सुख दुःख नयी उत्पन्न हुई आत्मा मुक्त नहीं सकती हैं इत्यादि युक्तियों से इस प्रकार समझाया कि क्षणक बादी की अकल ठिकाने आगई और उसने सोचा कि यदि आत्मा क्षण-क्षण में विनाश और उत्पन्न होती हो तो जिस क्षण में मुझे दुःख हुआ वह अब तक क्यों ? अतः इसमें कुच्छ समझने का जरूर है चलो गुरु महाराज के पास वस क्षणकबादी और भक्त दोनों सूरिजी के पास आये
क्षणकबादी ने सरिजी से पुच्छा कि गुरु महाराज आत्मा क्या वस्तु है और जन्ममरण क्यों होता है मरके आत्मा कहां जाती है और नयी आत्मा कहासे आकर उत्पन्न होती हैं और आत्माकों अक्षय सुख कैसे मिलता है ? सूरिजीने कहा आत्मा का, न विनाश होता है और न उत्पन्न ही होता है जीवके श्रनादिकाल से शुभाशुभ कर्म लगा हुआ है और उन कर्मों से नये-नये शरीर धारण करता हुआ चतुर्गति में भ्रमन करता है यदि जिनेन्द्रदेव कथित दीक्षा ग्रहन कर सम्पक् ज्ञानदर्शन चारित्र की श्राराधना करलें तो जन्ममरण रूपी कमों से होम परमात्मा बन कर सदैव सुखी बन जाता है।
क्षणकबादी क्या में दीक्षा लेकर ज्ञानदर्शन चारित्र की आराधना कर सकता हूँ ?
सूरिजी क्यों नहीं । श्राप खुशी से कर सकते हो । क्षणकबादी - तब दीजिये दीक्षा और बतलाइये रास्ता ? सूरिजी - उसी समय क्षणकबादी को दीक्षा देदी ।
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[ क्षणकवादी जैन दीक्षा
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