SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० सं० ७२४-७७८) [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पारख वगैरह हैं। पूर्वकाल के महाजनों को इधर से उधर, और उधर से इधर स्थान परिवर्तन करते रहने के मुख्य दो कारण थे। एक व्यापार के लिये और दूसरा राज्य विप्लव की भयंकरता के कारण । उदाहर. णार्थ-वर्तमान में भी बम्बई, कलकत्ता, करांची, ब्यावर, राणी, समीरपुर आदि शहर-जो बड़े २ शहरों के रूप में दृष्टि गोचर हो रहे हैं केवल व्यापारिक क्षेत्र की प्रबलता एवं विशालता के कारण से ही हैं। इसके विपरीत, कलिंगा, वल्लभी, सिंध और पजाब के लोगो ने राज्य कष्टों एवं आक्रमण की अधिकता के कारण इधर उधर-जिधर सुरक्षित स्थान मिले-जाकर अपने सुरक्षित स्थान बना लिये। इसके सिवाय भी कई वख्त राजा लोग अपने नये राज्य का निर्माण कर, महाजनों को सम्मान पूर्वक आमन्त्रित कर उन्हें कई प्रकार की सुगमता प्रदान कर अपने नये राज्य में ले गये । श्रतः महाजन लोगों का एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाकर रहना या वहां स्थिरवास करना स्वभाविक सा ही होगया था। इसका पुण्य एवं प्रबल प्रमाण आज भी हमारी आंखों के सामने हैं कि बरार, खानदेश, यू०पी०, सी० पी० बिहार, पजाब महा. राष्ट्रादि प्रान्तों में हमारे स्वधर्मी भाइयों की पेदियें यथावत प्रचलित हैं। हजारों लाखों की तादाद में उन प्रान्तों में व्यापार निमित्त मारवाड़ से गये हुए मारवाड़ी भाइयों के दर्शन हो सकेगे । अस्तु, उपकेशपुर में श्रादित्यनाग गौत्र की पारख शाखा के धनकुबेर, श्रावक व्रत नियमनिष्ठ, परम धार्मिक उदारवृत्तिवाले श्रीअर्जुन नाम के सेठ रहते थे। श्राप तीन बार संघ निकाल कर तमाम तीर्थो की यात्रा कर स्वधर्मी भाइयों को स्वर्ण मुद्रिका एवं वस्त्रों की पहरावणी देकर संघपति पद को प्राप्त करने में भाग्यशाली बने थे। तीन बार तीर्थयात्रा के लिए संघ निकालने के परमपुण्य को सम्पादन करने के पश्चात् दर्शन पद की वि. भागधना के लिए उपकेशपुर में भगवान श्रादिनाथ का एक आलीशान मंदिर बन. वाया था। आपके चार पुत्र ओर सात पुत्रियें थीं जिनमें एक करण नामका पुत्र बड़ा ही तेजस्वी था। वह बचपन से ही धर्मक्रिया की ओर अभिरुचि रखने वाला व आत्मकल्याण की भावनाओं से अोतप्रोत था। मुनि, महात्माओं की सत्संगति एवं उनकी सेवा के लिए सदा तत्पर रहता था। उसके जीवन में विलक्ष. णता थी, अलौकिकता थी, अद्भुतता थी। महात्माओं की भक्ति एवं धर्म कार्य में विशेष प्रेम उसके भावी जीवन के अभ्युदय के सूचक थे। अवस्था के बढ़ने के साथ ही साथ सेठ अर्जुन अपने पुत्र का विवाह करने के लिये उत्कण्ठित बन उठे तो इसके विपरीत करण उनका सख्त विरोध करने लगा। क्रमशः इसी उलझन में २५ वर्ष व्यतीत हो गये । अन्त में करण की इच्छा न होने पर भी कुटुम्ब वालों के अत्याग्रह से शा० अर्जुन ने करण की सगाई कर ही दी । समय पर विवाह करने के लिये उस पर बहुत अधिक दबाव डाला गया पर करण तो आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत पालने की प्रतिज्ञा ले चुका था अतः विवाह के प्रस्ताव को सुन कर वह एक दम पेशोपेश में पड़ गया। उसके सामने बड़ी विकट समस्या उपस्थित हो गई कि वह शादी के प्रस्ताव को स्वीकार करे या अपनी कृत प्रतिज्ञा पर स्थिर रहे । अन्त में उसने निश्चय किया कि मेरे निमित्त से एक जीव का और भी कल्याण होने वाला हो तो क्या मालूम अतः परिवार वालों की प्रसन्नता के निमित्त और अपनी इच्छा व प्रतिज्ञा के विरुद्ध भी शादी कर लेना समीचीन होगा । उक्त विचार के साथ में ही उसके नयनों के सामने विजयकुंवर, विजयकुघरी के एक शैय्या पर सोने पर भी भाई, बहिन के समान अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन करने का दृश्य चित्रवत् उपस्थित हो गया। बस, करण ने शादी करली। विवाह कार्य के सम्पन्न होने के पश्चात वह अपनी पत्नी के शयन १११० सूरीश्वरजी का नागपुर में प्रवेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy