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वि० सं० ११०८-११२८]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
श्री उपकेश गच्छ में पळूप शाखा-श्राचार्यश्री ककपूरि के अनन्तर श्रीसिद्धसूरि नाम के प्राचार्य हुए। आप सूरि पद के योग्य सर्वगुण सम्पन्न शाक्तिशाली आचार्य थे, पर खटकूप नगर के भक्त श्रावकों के अत्याग्रह से आप खटकूप नगर में कई अर्से तक स्थिरवास करके रह गये । इस पर गच्छ के शुभचिन्तक श्रमणों ने विचार किया कि बिना ही कारण गच्छनायक आचार्य श्रीसिद्धसूरि एक नगर में स्थिरवास कर बैठ गये यह ठीक नहीं किया। इसका प्रभाव अन्य श्रमण समुदाय पर बहुत बुरा पड़ेगा कारण आज तक उपकेशगच्छाचार्यों ने अति विकट एवं दीर्घ विहार करके महाजन संघ का रक्षण, पोषण एवं वर्धन किया है। अब इस प्रकार आचार्यश्री का एक नगर में स्थिर वास कर बैठ जाना उपकेशगच्छ के सञ्चालन में शिथिलता का द्योतक है अतः अवश्य हो आचार्यश्री को भी प्रान्तीय व्यामोह छोड़ कर अपना विहार क्षेत्र विशाल बनाना चाहिये । उक्त अादर्श विचार श्रेणी से प्रेरित हो अग्रगण्य मुनियों ने आचार्यश्री सिद्धसूरि से नम्रता पूर्वक प्रार्थना की-“प्रभो ! क्षमा कीजियेगा, हमें विवश हो आपश्री को एक स्थान पर स्थिरवास को देख कर कहना पड़ता है कि-आप सब तरह से समर्थ शक्तिवंत हैं। अतः पूर्वाचार्यों के अनुपम आदर्श को अभिमुख होकर आपश्री को भी जिनधर्म की प्रभावनार्थ एवं मुनिसमुदाय पर आदर्श प्रभाव डालने के लिये छावश्य ही दोध विहार रखना चाहिये"। इस विनम्र प्रार्थना पर सूरिजी ने न तो लक्ष दिया और न विहार ही किया। इस हालत में श्रमणों ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया -"आपको हर एक दृष्टि सेहि कदम बढ़ाना चाहिये अन्यथा हमें आपश्री के स्थान पर दूसरा आचार्य निर्वाचित करना पड़ेगा।" इस पर भी सूरिजी ने किञ्चित् भी लक्ष्य नहीं दिया अतः श्रमण संघ ने परस्पर परामर्श कर देवविमल नाम सुयोग्य मुनि को सूरि पद से अलंकृत कर आपका नाम श्रीसिद्धसूरि रख दिया ! खटकूध नगर में रहने वाले सिद्धसूरि
और उनके शिष्य गण के सिवाय अखिल गच्छ का सञ्चालन कार्य नूतन सिद्धसूरि करने लगे-जो गच्छ का भार वहन करने में सर्वथा समर्थ थे।
खटकूप नगर में रहने वाले सिद्धमूरि की आज्ञा में भी बहुत से साधु साध्वी थे पर वे अपने अन्तिम समय में किसी को भी अपना पट्टयर नहीं बना सके अर्थात् बिना सूरि पद अर्पण किये ही आप अकस्मात स्वर्गवासी होगये । अतः भापके विद्वान शिष्य 'यतमहत्तर' ने स्वर्गीय सिद्ध सूरि के गच्छ का सब भार अपने ऊपर लेकर उसका यथानुकूल सञ्चालन करने लगे।
यह तो श्राप अच्छी तरह पढ़ते आ रहे हैं कि अब तक उपकेश गच्छ में जितने मत, एवं गच्छादि पृथक २ हए हैं इनमें (समदाय विभिन्नत्व में ) अधिक सहायता श्रावक लोगों की ही है। खटकंग नगर के श्रावक यदि सिद्धसूरि का पक्ष नहीं करते तो इस शाखा का प्रादुर्भाव ही नहीं होता पर काल को ऐसा ही अभीष्ट था । जैसे भिन्नमाल के संघ ने मुनि कुंकुंद का पक्ष कर उनको आचार्य बना दिया तो उपकेश गच्छ में दो शाखाएं होगई । इसी प्रकार खटकूप नगर के श्रावकों ने सिद्ध सूरि का पक्ष किया तो कुंकुंद शाखा के भी दो टुकड़े होगये । एक भिन्नमाल की शाखा दूसरी खटकुम्म की शाखा । इतना सब कुछ होनेपर भी उस समय इतनी मर्यादा तो अवश्य ही थी कि बिना क्रिया अनुष्ठान और बिना किसी योग्य पुरुष द्वारा पद दिये कोई अपने आप प्राचार्य नहीं बन सकता था। यही कारण था कि सिद्ध पूरि के पट्ट पर कोई योग्य आचार्य नहीं बना। केवल यक्षमहत्तर मुनि ने ही उस गच्छ का सब उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया।
एक समय यक्षमहत्तर भ्रमन करते हुए मथुरा नगरी की ओर पधारे। वहां किसी नन्नभट्ट नाम के प्रभावक व्यक्ति ने आरण्यक (दिगम्बर) मुनि के पास दीक्षा ली और नगर के बाहर सिद्वान्ताभ्यास कर रहा था जिसको मुनि यक्षमइत्तर ने देखा । उस नग्न मुनि को होनहार समझ कर यज्ञमहत्तर ने उन्हें उपदेश दिया एवं श्वेताम्बर दीक्षा से दीक्षित कर लिया । कालान्तर में नन्नमुनि को सर्वगुण सम्पन्न, गच्छ धुरावाहक समझ कर सिद्धमरि के पटपर उन्हें सूरि बनाकर आपका नाम कमरि रख दिया। आचार्य
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कुंकुंदाचार्य की शाखा से एक और शाखा
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