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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५०८-१५२८ गृहस्थों को श्रमण दीक्षा देकर अपने गच्छ में श्रमण समुदाय की पर्याप्त वृद्धि की। दीक्षा के इच्छुक उक्त भावुकों में कृष्णार्षि नामका एक प्रज्ञाशील, तपः शूरा विप्रश्रमण भी था । कृष्णार्षि तेजस्वी एवं सर्व कलाकुशल था पर दुर्भाग्य वशात् श्रापकी दीक्षानंतर कुछ ही समय में आचार्यश्री फक्कसूरि का स्वर्गवास होगया। अतः आप उनकी सेवा का ज्यादा लाभ न उठा सके । उस समय यतमहत्तर मुनि अपनी वृद्वावस्था के कारण खटकुंपनगर में ही स्थिरवास कर रहते थे। अतः कृष्णर्षि आचार्यश्री के देहावगमनानन्तर शीघ्र ही चल कर यक्षमहत्तर मुनि के पास आगये। थोड़े समय पर्यन्त वीर मन्दिरस्थ यक्षमहत्तर मुनि की सेवा में रहते हुए कृष्णार्षि ने उपसंपदादि करणीय क्रियाओं का अनुष्ठान किया पर कुछ ही काल के पश्चात् यज्ञमहत्तर मुनि अपने गच्छ का सम्पूर्ण भार कृष्णार्षि को सौंप कर अनशन पूर्वक स्वर्ग पधार गये। कृष्णार्पि ने देवी चक्रेश्वरी के आदेशानुसार चित्रकूट में जाकर किसी आचार्य के पास अपने एक शिष्य को पढ़ाया । उसको सब तरह से योग्य व सर्वगुण सम्पन्न बनाकर आचार्य पद पर स्थापित कर दिया । परम्परानुसार आपका नाम देवगुप्त सूरि निष्पन्न किया । जब गच्छ का सम्पूर्ण भार देवगुपसूरे ने सम्भाल लिया तो कृष्णार्षि स्वतंत्र होकर विहार करने लगे। आर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए एक समय नागपुर में ग्वारे नागपुर निवासियों ने आपका बहुत ही शानदार स्वागत किया। आपने भी अपना प्रभावशाली वक्तृत्व पारम्भ रख्खा । जन समाज बड़े ही उत्साह से प्रति दिन व्याख्यान में उपस्थित होने लगी। आप बड़े ही विद्याबली एवं चमत्कारी महात्मा थे। अतः अपनी चमत्कार शक्ति के अनुपम प्रयोग से नागपुर निवासी सेठ नारायण को जैनधर्म की ओर आकर्षित करके उनके ४०० कुटुम्बियों को जैन धर्मानुयायी बना लिये । श्रेष्टि वर्यश्रीनारायण तो कृष्णार्षि का पूर्ण भक्त बन गया। वास्तव में सर्वत्र चमत्कार को ही नमस्कार किया जाता है । कृष्णार्षि के अनुपम उपदेश को श्रवण करने से नारायण के हृदय में जैन मन्दिर बनाने की पवित्र एवं नवीन भावना ने जन्म ले लिया। अपने न्यायोपार्जित द्रव्य का सदुपयोग करने में जिन मन्दिर निर्माण को ही उन्होंने सर्वोत्तम साधन समझा । बस, उक्त भावना से प्रेरित हो वह समय पाकर कृष्णार्षि से प्रार्थना करने लगा-गुरुदेव ! मेरी भावना एक जिन मन्दिर बनवा कर द्रव्य का सदुपयोग करने की है। कृष्णार्षि-जहासुह" श्रेष्टिवर्य ! मान्दिर बनवा कर दर्शनपद की आराधना करना श्रावकों का परम कर्तव्य है। पूर्वकालीन अनेक उदार नररत्नों ने जैन मन्दिरों का निर्माण करवा कर पुण्य सम्पादन करने के साथ ही साथ अपने नाम को भी अमर कर दिया। मन्दिर एक धर्म का स्तम्भ है, यह महान् पुण्योपार्जन कारण एवं अनेक भावुकों के कल्याण का साधन है। इस कार्य में जरासा भी विलम्ब करना बहुत विचारणीय है । श्रेष्टि ने भी गुर्वाज्ञा को 'तथास्तु' कह कर शिरोधार्य कर लिया। अपने मनोगत भावों की सिद्धि के लिये बहुमूल्य भेंट को लेकर वहां के राजा के पास गया और मन्दिर के लिये भूमि की प्रार्थना करने लगा राजा पर श्रेष्टि का अच्छा प्रभाव था अतः राजा ने कहा-श्रेष्टिवर्य ! तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो जन कल्याणार्थ मन्दिर बनवाकर आत्म कल्याण कर रहे हो । इस अात्म कल्याण के कार्य में मेरी ओर से तुम्हें भूमि के लिये छूट है । मन्दिर के लिये तुम्हें जो स्थान योग्य मालूम पड़े-तुम प्रसन्नता के साथ आवश्यकतानुकूल परिमाण में ले सकते हो । इस परम पुण्यमय कार्य में इतना हिस्सा तो मेरा भी रहने दो । भूमि के लिये लाई हुई इस भेंट को पुनः लेजाओ । सेठ ने अत्यन्त कृतज्ञता पूर्वक राजा के हार्दिक भावों का अभिनन्दन किया। वह वंदन कर अपने घर आया और अपने गुरुश्री से इस विषय में परामर्श कर नागपुर के दुर्ग में मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया। जब क्रमशः मन्दिर तैय्यार होगया तो नारायण सेठ ने कृष्णार्षि से प्रार्थना की प्रभो ! मन्दिर तैय्यार होगया है। अतः इसकी प्रतिष्ठा करवा कर हमें कृतार्थ करें। आपश्री के मन्त्रों से तो पाषाण भी पूजनीय बन जाता है। कृष्णार्षि ने कहा कि हे-भाग्यशाली ! तुमने बड़ा ही उत्तम कार्य किया है। जब मन्दिर तैय्यार हो मुनि कृष्णर्षि का चमत्कारी जीवन १८५ १४७३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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