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________________ प्राचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४११-१४३३ नगर के प्रवेश के पश्चात् स्थानीय मन्दिरों के दर्शन कर आपश्री ने प्राथमिक माङ्गलिक देशना प्रारम्भ की। इस तरह आपने अपना व्याख्यान क्रम प्रतिदिन की भांति यहां पर भी प्रारम्भ रक्खा। सूरिजी स्वयं बड़े ही त्यागी वैरागी एवं गुणानुरागी थे अतः आपश्री के व्याख्यान में भी वही रंग बरसता था। जिस समय या संसार की असारता त्याग की उपादेयता एवं आत्म कल्याण की आवश्यकता पर विवेचन करते थे तब लघु कर्मी जीवों का हृदय गद्गद् हो जाता था। उन्हें संसार के प्रति उदासीनता एवं पुद्विग्नता के वैराग्योत्पादक भाव पैदा हो जाते थे। वे आचार्यश्री के व्याख्यान के आधार पर इन विचारों में निमग्न हो जाते कि-मनुष्य भवयोग्य सुदुष्कर उत्तम साधनों के मिलने पर भी उनका यथावत् सदुपयोग नहीं किया तो भविष्य के लिये ये ही साधन व्यर्थ किंवा पश्चाताप के हेतु हो जावेंगे। उन्ही विचारशील मेधावियों में मन्त्री चन्द्रसेन भी एक था। मन्त्री ने खूब तर्क वितर्क एवं मानसिक कल्पनाओं से आत्मा को काल्पनिक सन्तोष देना चाहा पर अन्त में आचार्यश्री के गम्भीर उपदेश से वह इसी निर्णय पर पहुँचा कि-सांसारिक प्रपञ्चों से सर्वथा विमुक्त होकर सूरीश्वरजी की सेवा में भगवती दीक्षा स्वीकार करना ही भविष्य के लिये हितकर है। वास्तव में-"बुद्धिफल तत्व विचारणंच" मनुष्य सम्यग्दृष्टि पूर्वक आत्म शान्ति के अमोघ उपाय की गवेषणा करे तो उसे यथा सम्भव शीघ्र ही यथा साध्य सुगम मार्ग मिल ही जाता है। बस, मन्त्री चद्रसेन ने भी अपने कुटुम्ब को एकत्रित कर कह दिया-अब मेरो इच्छा संसार को तिलाञ्जली देकर दीक्षा लेने की है। यदि अन्य किसी को भी आत्मकल्याण सम्पादन करने की उत्कृष्ट भावना हो तो वह शीघ्र ही मेरे साथ तैयार होजाय । मंत्री के एक दम सूखे वचन श्रवण कर सकन परिवार के लोग निराशा सागर में गोते खाने लगे। चारों ओर इन वैराग्योत्पादक वचनों से करुण आक्रंदम मचगया। मंत्री के परिवार वालों में से कोई भी यह नहीं चाहता था कि हमारे सिर के छत्ररूप चन्द्रसेन हमको इस प्रकार यकायक छोड़कर चारित्र वृत्ति स्वीकार करलें । वे तो उनसे तमाम जिन्दगी मुफ्त में काम लेना चाहते थे। पर मंत्री कोई नादान बालक या किसी के बहकावे में आया हुअा नहीं था। उसने तो आत्म स्वरूप को विचार करके ही आत्मिक उन्नत परिणामों के आधार संसार को तिलाञ्जली देने का ( चारित्रवृत्ति लेने का) विचार किया था, अतः किसी प्रकार से सांसरिक-प्रापञ्चिक स्वरूप को समझाकर अपने परिवार वालों से दीक्षा के लिये सहर्ष आज्ञा प्राप्त करली । जब यह खबर नगर के घर घर पहुँच गई तब तो आपके अनुकरण रूप में १७ पुरुष व आठ महिलाएं और भी तैय्यार होगई। चंद्रसेन के पुत्र धर्मसी ने अपने पितादि की दीक्षा के महोत्सव में सवालक्ष से भी अधिक द्रव्य व्यय कर शासन की खूब प्रभावना की प्राचार्यश्री ने भी उक्त २६ मुमुक्षुओं को भगवती दीक्षा देकर उनका आत्मोद्धार किया। क्रमशः मंत्री चंद्रसेन का नाम दीक्षानंतर मुनि पद्यत्रभ रख दिया। मुनि पद्मप्रभ ऐसे तो पहिले से ही विचक्षम मतिवान् कुशाग्र बुद्धि वाला था। उसने सांसारिक अवस्था में रहते हुए भी व्यवाहारिक एवं धार्मिक विद्याओं में निपुणता प्राप्त करली थी फिर सूरिजी म० की अनुपम कृपादृष्टि और स्थविरों की विनय, वैयावृत्य रूप श्रद्धा पूर्ण भक्ति से उसने अल्प समय में ही वर्तमान साहित्य, आगम, न्याय, व्याकरण, कोष, काव्यादि सकल तत् समयोपयोगी विषयों में भी अनन्यता हस्तगत करली । क्रमशः आचार्यश्री की सेवा में रहते हुए आचार्य पद के सम्पूर्ण गुण भी प्राप्त कर लिये । आचार्यश्री ने पद्मप्रभ मुनि को अपने पट्ट के लिये सर्वथा योग्य समझ कर गुरु परम्परा से आई हुई विद्या, मन्त्र एवं आम्नायों को पद्मप्रभ मुनि को प्रदान करदी। विनयवान् पद्मप्रभ मुनि ने भी ३३ वर्ष पर्यन्त गुरुदेव श्री की सेवा में रह कर सूरिजी म० की बहुत श्रद्धा पूर्ण सेवा की फिर ऐसे विनयशील शिष्य के लिये गुरु कृपा से कौनसी बात ढसाध्य रह सकती है? __पहिले के प्राचार्यों का प्रभाव एवं चमत्कार बढ़ाने के मुख्य कारण भी उनके जीवन के प्रमुख अङ्ग विनय गुण, नम्रता एवं लघुता ही हैं । वे प्रखर प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् एवं सर्वगुग्म सम्पन्न होकर भी मान या मन्त्री चन्द्रसेन की दीक्षा : १३88 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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