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वि० सं०१०११-१०३३]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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कीर्ति की कुत्सित, भविष्य के हित की घातक आकांक्षा से गुरुकुल बास से दूर नहीं रहना चाहते थे। वे तो गुरुकुल में रह कर यात्मिक गुणों की उन्नति करने में ही अपने को भाग्यशाली एवं गौरवशील समझते थे। इसके विपरीत आज का शिष्य समुदाय लाधारण मारवाड़ी जनता या शाखानमिज्ञ मनुष्यों का मनरंजित करने के लिये कलमूत्र ( इसका भी साङ्गोपाङ्ग पूर्ण मर्मज्ञता के साथ अध्ययन नहीं) एवं श्रीपाल चरित्र पढ़ कर व्याख्यान बांचने में ही अापने ज्ञान यान की इतिश्री समझ लेता है या अपने आपको इतने में ही कृतकृत्य बना लेता है। इतने से अध्ययन के पश्चात् तो गुरु से अलग रह कर अलग विचरने में ही अपने को सौभाग्यलाशी समझता है । इसी अविवेकला एवं मिथ्याभिमान के कारण योग्यता उनसे हजार हाथ दूर भागती है। इससेतो वे अपना भनाकर सकते हैं और न किसी दलर का कल्याग ही। इतना ही क्या पर, यह देखादेखी रूप चेपी रोग के सर्वत्र फैल जाने के कारण वर्तमान में हमारे आचार्य नाम धराने वाले कई हुजन श्राचार्यों के विद्यमान होने पर भी शत्रुञ्जय जैसे पवित्र तीर्थ के साठ हजार रुपये प्रति वर्ष करके देने पड़ते हैं. कारण आज के प्राचार्य केवल जाममात्र के ही हैं। उनमें कोई विशेष चमत्कार या दसरों पर स्थायी प्रभाव डालने वाली अलौकिक शक्ति नहीं है।
हमारे चरित्र नायक मुनि पद्मप्रभ को सूरिजी ने उनकी योग्यतानुसार पण्डित, वाचनाचार्य और उपाध्याय पद से भूपित किया और अन्तिम समय में तो आचार्य ककसूरि ने व्याघ्रपुर नगर के शाह बाधा के महा महोत्सव पूर्वक सूरि पद प्रदान कर आपका नाम आचार्य देवगुप्त सूरि रख दिया।
श्राचार्य देवगुप्त सूरि जैन संसार में एक महा प्रभावक आचार्य हुए। आपको विद्वत्ता के सामने कई वादी सदा ही नत मस्तक रहते थे। आप अपने पूर्वजों के आदर्शानुसार प्रत्येक प्रान्त में विहार कर धर्मोद्योत करने में संलग्न थे। आपके आदेशानुसार विविध २ प्रान्तों में विचरण करने वाले आपके आज्ञानुयायी हजारों साधु साध्वियों की समुचित व्यवस्था का सम्पूर्ण भार आपश्री पर था। यही कारण था कि, उस समय आचार्य पद एक उत्तरदायित्व पूर्ण एवं महत्व पूर्ण पद समझा जाता था। वर्तमान कालानुसार हरएक को (चाहे वह सूरि पद के योग्य न भी हो ) सूरि नहीं बना दिया जाता था।
प्राचार्यश्री के विहार क्षेत्र की विशालता के लिये पट्टावलियों एवं वंशावलियों में बहुत ही विस्तारपूर्वक उल्लेख है । मरुधर, लाट, कोकन, सौराष्ट्र, कच्छ, सिन्ध, पञ्जाब, कुरु, कुणाल, बिहार, पूर्वकलिङ्ग, शूरसेन, मत्स्य, बुन्देलखण्ड, चेही आवन्तिका, मेदपाट और मरुधरादि विविध २ प्रदेशों में आपका सतत विझर होता ही रहता था। आपने इन क्षेत्रों में परिभ्रमन कर धर्म प्रचार भी खून बढ़ाया।
आचार्य देव गुप्त सूरि विहार करके एक समय पावागढ़ की ओर पधार रहे थे। इधर प्रतिहार राव लाधा अपने साथियों के साथ मृगया यानि जीव वध रूप शिकार करने को जा रहा था। मार्ग में आचार्य श्री एवं राव लाया दोनों की परस्पर भेंट हो गई। सूरिजी ने उनको अहिंसाधर्म का तात्विक उपदेश देकर जैनधर्मानुयायी बना लिया । परम्परानुसार उनको उपके शवंश में सम्मिलित कर उपकेशवंश का गौरव बढ़ाया। इस घटना का समय पट्टावलीकारों ने विक्रमी सं० १०२६ का लिखा है। राव लाया की वंश-परम्परावंशावली के आधार पर निम्न प्रकारेण है।
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रिजी का विहार और राव लाधा की मेट
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