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________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल ९० ९२७.९५८ की वंश परम्परा विशेष उल्लेखनीय है । इनपान्तों में जैनश्रमणों का विहार भी अधिक था और जैनधर्म के पवित्र सिद्धान्तों का उपदेश भी बराबर मिलता रहता था अतः इन प्रान्तों में जैनधर्म क राज धर्म बनचुका था। खेद है कि एतद्विषयक जितने ऐतिहासिक पुष्ट प्रमाण चाहिये थे उतने सम्प्रति, उध्ध नहीं हो सके तथापि जो कुछ हमें प्राप्त ए हैं उन्हीं के आधार पर यत्कञ्चित रूप में यह लिखा ला रहा है । हमारी वंशाव लयों एवं पदावलियों में यत्र तत्र कुछ प्रमाण अवश्य मिलते है पर ये शेिष प्राचीन नहीं किन्तु अवीन समय के होने कारण उन पर इसना भार नहीं दिया जा सकता है। वे विद्वानों की दृष्टि से कम विश्वासनीय है फिर भी वंशालियां पट्टावलियां सर्वथा निराधार भी नहीं है । उसों पूर्व परम्पग, गुरु कथन और धारण. से जो कण्ठस्थ ज्ञान चला आया था वह ही लिपिबद्ध किया गया है अतः ये सर्व । सत्य से पराङमुख या युक्ति शून्य भी नहीं है। वतमान में गवर्न एट सरकार के पुरातत्व शोध-खोज विभाग ने भूमि को खोद कर प्राचीन ऐतिहासिक वस्तुओं को प्राप्त करने का एक परमावश्यक कार्य प्रारम्भ किया है । इस खोद काम को प्रामा. णिकता एवं सफलता र रूप भूगर्भ से अनेक ताम्रपत्र, दानपत्र, सिक्के, मूर्तियां, खण्डहर तथा कई प्राचीन नगर भी मिले हैं । इस सूक्ष्म अन्वेषण कार्य से ऐतिहासिक क्षेत्र एवं प्राीना को शोध निकालने के कार्य में बड़ी ही सहायता मिली है । इतनाही नहीं हमारी वंशावलियों एवं पट्टाव लयों पर भी प्रामाणिकता की खासी छाप पड़गई है । जिनपट्टावलियों के प्रमाणिक थन पर अर्वाचीनता के कारण संदेह करते थे; आज वे प्रायः निस्सदेह बन गये। उदाहरणार्थ दिखिये। ( १ ) हमारी पट्टावणियों में कलिङ्ग पति भिक्षुराज का वर्णन विस्तार से मिलता है प विद्वानों का उस पर ( भिक्षुराज के जीवन वृत्त पर ) उतना ही विश्वास था जितना कि उनका इन पट्टावनियों पर था अर्थात् लन्हें ऐतिहासिक मनीषी प्रायः अप्रामाणिक एवं युक्ति शुन्य समझते थे पर जब कलिङ्ग की उदयगिरि, खण्डगिरी पहाड़ियां पर महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल (भिक्षुराज ) का शिलाख जो १५ फीट लम्बा ५ फीट चौड़ा है --प्राप्त हुआ तो उसमें वहीं ब त पाई गई जो हमारी गुरु परम्परा से आई पट्टावलियों में वर्तमान है। (२) हमारी पट्टालियों वतला रही थी कि मथुरा में सैकड़ों जैन मन्दिर एवं जैन स्तूप थे अनेक वार जैनाचार्यों ने मथुग में चतुर्मास किये थे इतनाही क्यों पर जैनागमों की वाचना भी मथुरा नगर। में हुई थी पर वर्तमान में कोई भी चिन्ह नही पाने से वंशावनियों में शंभ की जाति थी परन्तु मथुरा के कंकाली टीले के खोद काम से वहां अनेक प्रतिमाएं एवं अयग पट्टादि निकले इसस सिद्ध हुआ कि मथुरा और उसके आस पास के प्रदेशों में जैनधर्म का पर्याप्त प्रचार था। (३ : अजमेर के पास बी नामक ग्राम में भगवान महावीर के निर्वाण के ८५ वर्ष के पश्चात् का शिला लेख मिला है। इससे पाया जाता है कि, वीगत् ८४ वर्ष में इस प्रदेश में जैनधर्म का बहुत प्रचार था । हमारी पट्टावलियां भी बताती है कि वीरात् ७० वर्ष में आचार्य रमप्रभ सूरिने मरुधर में जैनधर्म की नींव डाली और वीरात् ८४ वें वर्ष में आचार्य श्री का स्वर्गवास हुआ। शायद् उनकी स्मृति का ही यह शिलालेख हो।। राज्य-प्रकरण] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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