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________________ वि० सं० ७७८-८३७) [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को मृत्यु का भय नहीं है ? दूतने कहा-भगवन् ! आपका कहना सर्वथा सत्य है और मेरा भी यही विचार है। मैं मेरी अल्पमति से आपसे यह कह देना चाहता हूँ कि यद्यपि आप सर्व प्रकारेण समर्थ हो पर वाद के पूर्व यह शर्त कर लेना अच्छा होगा कि वाद में पराजित होने वाले को तप्ततेल की कड़ाई में प्रवेश करना होगा। दूत के मुंह से मनोऽनुकूल शब्द सुनकर बौद्धाचार्य ने दूत की खूब प्रशंसा की और कहा तेरा कहना सर्वथा उचित है । मैं इसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ। इप्स पर दूत ने इस बात को विशेष दृढ़ करने के लिये कहा--भगवान ! बहुरत्न वसुंधरा, इस न्याय से कदाचित् जो कि सम्भव नहीं है फिर भी वादी द्वारा आपको पराजित होना पड़े तो अपनी उक्त शत पर आपको भी पूर्ण विचार कर लेना चाहिये । आपके पराजय की मेरी कल्पना श्राकाशपुष्पवत् असम्भव है तथापि पहिले से विचार करलेना जरूरी है। इस पर बौद्धाचार्य ने कहा-अरे दूत ! उस शंका और कल्पना ने तेरे दिल में कैसे स्थान ले लिया है ? क्या तुझे विश्वास है कि इस संसार में वादी एक क्षण भर भी वाद में मेरे सामने खड़ा रह सकेगा ? तू सर्व प्रकारेण निश्चिन्त हो दृढ़ता पूर्वक मेरे भक्त राजा सूरपाल को कहदेना की वाद विवाद के लिये शीघ्र आरहे हैं। दूत ! अब तुम जाओ, मैं तुम्हारे पीछे शीघ्र ही रवाना हो निर्दिष्ट स्थान पर आरहा हूँ। बौद्ध नगर से चलकर दूत अपने राजा के पास आया और बौद्धाचार्य से हुए वार्तालाप को राजा के सन्मुख सविशद सुना दिया । राजाने दूत की बहुत प्रशंसा की व समुचित पुरस्कार दिया और हरिभद्र सूरि भी अपने इच्छित कार्य की सिद्धि के लिये बहुत ही आनन्दित हुए। बस, चार दिनों के पश्चात् बौद्धाचार्य अपने विद्वान शिष्यों को साथ में लेकर सूरपाल राजा की राजसभा में उपस्थित होगये । बौद्धाचार्य ने सोचा कि इस सामान्य कार्य के लिये अपनी सहायिका तारा देवी को बुलाने की क्या जरूरत है ? ऐसे वादियों को तो मैं यों ही क्षण भर में ही परास्त कर दूंगा इस आशा पर उन्होंने देवी को नहीं बुलाई और अपनी योग्यता के बल पर विश्वास रखकर राजसभा में विवाद करने को तैयार होगये। इधर प्राचार्य हरिभद्रसूरि भी इसके लिये समुत्सुक थे अतःराज सभा में दोनों के बीच वाद विवाद प्रारम्भ होगया। बौद्धाचार्य ने कहा-यह सब जगत अनित्य है। सत् शब्द केवल व्याकरण की सिद्धि के लिये ही है । इस पक्ष में यह हेतु है कि संसार के सकल पदार्थ अनित्य एवं अशाश्वत है जैसे जलधर ! हरिभद्रसूरि-यदि सकल पदार्थ क्षणिक हैं, तब स्मरण एवं विचार संतति कैसे चली आरही है ? पदार्थ को एकान्त क्षणिक स्वीकार कर लेने पर यह कैसे कहा जायगा कि हमने इस पदार्थ को पूर्व देखा । बौद्धाचार्य-हमारे मनकी विचार संतति सदातुल्य और सनातन होती है । उस संतति में इस प्रकार का बल होता है । जिप्ससे हमारा व्यवहार उसी प्रकार चल सकता है। . हरिभद्रसूरि - यदि मति तति नाशमान नहीं है तब सत् अर्थात् क्षणिक भी नहीं रही और संतति ध्रुव होने से तुम्हारे वचनों से ही तुम्हारी मान्यता का खण्डन होगया अतः तुमको अपनी मिथ्या मान्यता शीघ्र ही छोड़ देना चाहिये ।। बौद्धाचार्य, हरिभद्र सूरि की तर्क का समाधान नहीं कर सके । लोगों ने बौद्धाचार्य को मौन रहा देखकर यह घोषणा करदी कि बौद्धाचार्य पराजित होगये। बस उनको जबरन पकड़ कर तप्त तेल की कुण्डी में डाल दिया जिससे वे शीघ्र ही प्राणमुक्त हो गये । बौद्धाचार्य की मृत्यु का हाल देख उनका शिष्य समुदाय १२२२ हरिभद्रसूरि का बोद्धों के साथ शास्त्रार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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