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________________ वि० सं० ८३७-८६२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चांदी उस काल के व्यापारियों को मुख्य वस्तुएं थी । यह व्यापार पूरेजोश में होने के साथ ही साथ व्यवस्थित रूपेण चलता था। उपर्युक्त यादी की पीतल, सीसा, कलाई, सोना, चाँदो आदि खनिज वस्तुएं दाक्षादि, लीला मेवा, सूखामेवा आदि खेती से पैदा हुए पदार्थ, धातु के खिलौने, बर्तन, रेशम, कीमती पत्थर, मोती, कांच, और चीनी मिट्रो के वर्तन आदि मोज शोख की वस्तुएं. जानवरों में घोड़े आदि हिन्द की पायात वस्तएं थी। इसके विपरीत जानवरों में बन्दर, मयूर, कुत्ता, हाथी आदि, कीमती पत्थर, सोना और धातु के बर्तन और उसी प्रकार सामान आदि खनिज वस्तुएं, पालाद, लोखंड, कटलरी, बख्तर, हथियार, सूती कपड़े, मलमल, रेशम, रेशमी कपड़े, वाहन, मिट्टी और पॉलिस के बर्तन, आदि तैयार माल, रुई, सुखड, साग आदि खेती के पदार्थ, हाथीदांत, रंग, गली, तेल, अन्तर आदि मोज शोख की वस्तुएं, मरी, सूंठ सौपारी, लविंग, तज ऐलची आदि, तेजाना चोखा वगैरह अनाज और कपूर आदि वस्तुओं का निकास था। पहिले के जमाने में हिन्द के कच्चे माल को तैय्यार करके पर-देश भेजते थे। जिसमें सूती कपड़ा तो चीन से लगाकर कॅप ऑफ गुड हपो पर्यन्त हमारे देश का ही काम में लेते थे। रंग गुली वगैरह का तो कंट्राक्ट (इजारा) ही था। इनके सिवाय रंग बेरंगी छींटे और सोने, रूपों की छापों का वस्त्र भी काफी तादाद में विदेशों में जाता था। इसको विशेषोत्पत्ति शौर्यपुर आदि नगरों में थी। लोहे का शुद्ध पोलाद बना कर भांति २ के पदार्थों के रूप में परदेश खाते भेजा जाता था। कई विदेशी व्यापारी लोग भारत में आकर भारतीय व्यापारिक केन्द्रों का निरीक्षण कर आश्चर्यान्वित हो जाते थे और भारतीय कलाकौशल एवं हन्नर उद्योग की शिक्षा पाकर अपने देश में उसका विस्तृत प्रचार करते थे। उपरोक्त व्यापार के सिवाय भारतीय व्यापारीवर्ग अपनी करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति लगाकर भाड़त का व्यापार भी किया करते थे । वे पूर्व के देशों का माल खरीद कर पश्चिमीय देशों में बेचते । भारतीय साहसी व्यापारी जापान, लङ्का, चीन, मलाया, आदि देशों का माल खरीद कर अरबस्थान, इरान, इजिप्ट, ग्रीस, इटली आदि देशों में विक्रयार्थ भेजते थे । इस विषय का विस्तृत वर्णन व्यापारिक प्रकरण में कर आये हैं अतः यहां ज्यादा नहीं लिखा जा रहा है।। तदनुसार शाह राणा का व्यापारिक क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था । शुभ कर्मों के उदय से आपने व्यापार में पुष्कल द्रव्योपार्जन किया था। आपका अधिक लक्ष्य स्वधर्मीभाइयों की सेवा की ओर रहता था। हर एक प्रकार से स्वधर्मी भाई को सहयोग देकर उसको उन्नत अवस्था में लाने के लिये आप तन, मन एवं धन से प्रयत्नशील रहतं थे। तात्पर्य यह कि परोपकार को अपने जीवन कर्तव्य का एक अङ्गही बना लिया था शाह राणा जैसे द्रव्योपार्जन करने में कुशल थे वैसे उस न्यायोपार्जित द्रव्य का व्यय करने में भी कुशल थे। तीर्थ यात्रा जन्य अतुल पुण्य राशि को सम्पादन करने के लिये आपने तीन बार तीर्थयात्रार्थ संघ निकाले। स्वधर्मी भाईयों को स्वर्णमुद्रिकाओं की पहिरावणी देकर अपने आप को कृतार्थ किया। पट्टावली कर्ताओं ने लिखा है कि इस शुभ कार्य में, शाह राणा ने पांच करोड़ रुपयों का द्रव्य व्यय किया था। पाल्हिकादि कई स्थानों में सात मन्दिर बनवाकर दर्शनपद की आराधना की। एक दुष्काल में लाखों करोड़ों रुपयों का अन्न, घास देकर देशवाशी भाइयों एवं पशुओं के प्राण बचाये । शाह राणा इतना उदार वृत्तिवाला व्यक्ति था किइसके घर पर या घर के पास से यदि कोई याचक निकल जाता तो उसकी आशा को बिना किसी भेद भाव के पूर्ण की जाती थी । इसी औदार्य एवं गाम्भीर्य गुण से राणा की शुभ्रकीर्ति चतुर्दिक में विस्तृत थी। शाह राणा के ११ पुत्र ७ पुत्रियां और अन्य बहुत विशाल परिवार था परन्तु इतना बड़ा व्यापारी एवं विशाल कुटुम्ब का स्वागी होने पर भी शाह राणा की यह विशिष्ट विशेषता थी कि वह अपने षट्कर्मप्रभुपूजा, सामायिक व्रत, व्याख्यानश्रवण, पर्वादितिथि में पौषधव्रत, प्रतिक्रमण चतुर्दशी के व्रत वगैरह नित्य नियम में कभी त्रुटि नहीं आने देता था । देव गुरू धर्म पर अटूट श्रद्धा सम्पन्न, श्रावक गुणव्रत, निषम निष्ठ १३२२ __ शाह राणा का व्यापारिक क्षेत्र For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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