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आचार्य देवगुप्तरि का जीवन ]
[भोसवाल सं० १९३७-१२६२
परमधार्मिक श्रावक था। नित्य नियम तथा पवित्र श्रद्धा से शाह राणा को देव दानव आदि कोई भी स्खखित करने में समर्थ नहीं था। 'यतोधर्मस्ततोजयः' इस अटल सिद्धान्त पर पूर्वकालीन जन समुदाय का गहरा विश्वास था। इसी कारण से उस समय के लोग धन, जन, कुटुम्ब परिवार आदि सम्पूर्ण सुखों से सम्पन्न थे। शाह राणा जैसे धर्मज्ञ एवं कर्मठ था वैसे ही उनकी धर्मपत्नी एवं पुत्रादि कुटुम्ब परिवार भी धर्म कार्य में तत्पर थे। ___एक समय पुण्यानुयोग से जगविश्रुत, शान्तिनिकेतन, परम व्याख्याता आचार्य श्री कक्कसूरिजी म. पाल्हिका नगरी को पधारे । श्रीसंघ ने सूरिजी का बड़ा ही शानदार महोत्सय किया। श्रेष्टिगौत्रीय शाह दयाल ने तीन लक्ष द्रव्य शुभक्षेत्रों में व्यय किया । आचार्यश्री ने भी स्थानीय मन्दिरों के दर्शन कर भागतजन मण्डलीको संक्षिप्त किन्तु हृदयग्राहिणी देशना दी । इस प्रकार के अपूर्वोपदेश को श्रवण कर जनता भी मन्त्र मुग्ध बन गई । आचार्यश्री ने भी अपना व्याख्यानक्रम नित्यनियम की भांति प्रारम्भ ही रक्खा।।
सूरिजी षट् दर्शन के परमज्ञाता थे अतः जिस समय तुलनात्मक दृष्टि से एक २ दर्शन का विवेचन करते थे-तब जनता सुनकर दांतों तले अंगुली लगाने लगती । पक्षपात की ज्वाज्वल्यमान अग्नि में प्रज्वलित व्यक्ति भी आचार्यश्री के व्याख्यान से प्रभावित हो नत मस्तक हो जाता। उसके हृदय में भी सूरीश्वरजी के समा गम से जैन धर्म रूप श्रद्धा के अंकर अंकरित होने लगते । जिस समय सरिजी संसार की असारता. चंचलता, कौटम्बिक व्यक्तियों का स्वार्थजन्य प्रेम शरीर की क्षणभङ्गुरता, श्रायुष्य की अस्थिरता के विषयो का वर्णन करते-जनना योगियों की भांति संसार से विरक्त होजाती।
शाह राणा और आपका सब कुटुम्ब भी सूरिजी का व्याख्यान हमेशा सुनते थे । सूरीश्वरजी के व्याख्यान से संसारोद्विग्न हो शाह राणा का एक पुत्र मल्ल, सांसारिक मोह पाश से विमुक्त होने के लिए श्राचार्यश्री की सेवा में दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गया। उसने अपने उक्त दृढ़ संकल्पानुसार माता पिताओं से एतद्विषयक निवृत्यर्थ श्राज्ञा गांगी किन्तु माता, पिता, स्त्री, पुत्रादि कुटुम्ब कब चाइते थे कि एक घर के सम्पूर्ण भार को वहन करने वाला प्राणप्रिय मल्ल हमको बातों ही बातों में छोड़ दें ? अतः उन्होंने अनेक प्रलोभनादि अनुकूल उपसर्गों एवं परिषदादि प्रतिकूल भयोत्पादक असगों से मल्ल को समझाने का प्रयत्न किया किन्तु उक्त सर्व प्रयत्न पानी में लकीर खींचने के समान निष्फल ही सिद्ध हुए। कारण जिसको वैराग्य का सञ्चा रंग लग गया है, जिसने संसार को काराग्रह समझ लिया है वह सहस्रों अनुकूल प्रतिकूल प्रयत्रों से भी घर में नहीं रह सकता है। विवश हो परिवार वालों को श्रादेश देना ही पड़ा। शाह राणा ने नवलक्ष द्रव्य व्यय कर मल्ल का दीक्षा महोत्सव किया। मल्ल ने भी साथ पुरुष एवं ग्यारह बहिनों के साथ में वि० सं० ७६६ के फाल्गुन शुक्ला तृतीया के शुभ दिन सूरीश्वरजी के कर कमलों से भगवती जैन दीक्षा स्वीकार को। दीनानन्तर मल्ल का नाम श्री ध्यानसुन्दर मुनि रख दिया गया। मुनि ध्यानसुन्दरजी ने ३८ वर्ष के गुरुकुल वास में सम्पूर्ण शास्त्रों में असाधारण पाण्डित्य एवं सूरिपदयोग्य सम्पूर्ण गुण सम्पादित कर लिये । अतः आचार्य श्री कक्कसूरि ने अपनी अन्तिम अवस्था में उपकेशपुर के महावीर मन्दिर में श्री संघ के समक्ष विक्रम सं०८३७ में २०ध्यानसुन्दर को सूरिपद प्रदान कर आपका नाम देवगुप्रसूरि रख दिया।
प्राचार्यश्री देवगुप्तसूरिजी महान प्रतिभाशाली श्राचार्य हुए। आप दीक्षा लेकर ३८ वर्ष तक आचार्य श्री कक्कसूरिजी की सेवा में रहे। इस दीर्घ अवधि में आपश्री ने आचार्यश्री के साथ देशाटन भी खूप किया। आचार्यश्री कक्कसूरि के समय में दो अत्यन्त विकट प्रश्न उपस्थित थे। एक चैत्यवासियों की आचार शिथिलता का और दूसरा वादियों के संगठित आक्रमणों का। उक्त दोनों प्रश्नों को हल करने में उ० ध्यानसुन्दरजी की भी पूर्ण सहायता थी अतः आपश्री भी एतद्विषयक बातों के पूर्ण अनुभवी बन गये थे । ये दोनों प्रश्न आपके शासन में भी थोड़े बहुत रूप में यथावत् विद्यमान रहे । यद्यपि प्राचार्यश्री कक्कसूरिजी ने इन आचार्यश्री का शुभागमन
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