________________
प्राचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १४३३-१४७४
पुत्र--पूप पिताजी ! आपश्री का कहना किसी अंश में ठीक अवश्य कहा जा सकता है पर धर्म रूप अमूल्य रत्न का सर्वदा के लिये विक्रय कर नारकीय यातनाओं का कारण भूत हिंसा धर्म का अनुगामी होना और वह भी नगण्य द्रव्य के प्रलोभन से-क्या श्रेयस्कर कहा जासकता है ? पिताजी सा० हम तो आपके अनुभव एवं ज्ञान के सम्मुख एक दम अल्पज्ञ हैं, पर आप ही गम्भीरता पूर्वक विचार करिये कि यदि योगी की किञ्चत् बाह्य कृपादृष्टि से अपने को अक्षय द्रव्य की प्राप्ति भी होगई तो क्या वह परलोक के लिये श्रेयरुप हो सकेगी ? लक्ष्मी तो प्रायः पापका ही हेतु है धार्मिक भावों की प्रबलता में दारिद्रय जन्य दारूण दुःख भी सुख रूप है और धन्य वेश्रमण की अनुपमावस्था में अधार्मिक वृत्ति रूप सुख भी दुःख रूप है कुछ भी हो पताजी सा० ! हम तो ऐसा करने के लिये सर्वधा तैय्यार नहीं ।
दैन्यवृत्तिप्रादुर्भूत विषय विषमावस्था में भी पुत्रों के सराहनीय सहन शक्ति एवं प्रशंसनीय धर्मानुराग को देख लाडुक, गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी प्रापचिक जटिलता को स्मृति-विस्मृत कर हर्ष विमुग्ध बन गया। कुछ क्षणों के लिए उसे पारिवारिक धार्मिक भाव
से भी ज्यादा सुख का अनुभव होने लगा। वह अपने आपको इस विषम दशा में भी भाग्यशाली एवं सुखी समझने लग गया।
इस तरह के दीर्घ विचार विनिमय के पश्चात् दृढ़धर्म रंग रक्त लाडुक योगी से कहने लगा-महात्मन् ! आपकी इस उदार कृपा दृष्टि के लिये मैं आप का अत्यन्त आभारी हूँ। मुझे आपकी इस अनुपम दया के लिए हार्दिक प्रसन्नता है । इसके लिये मैं आपका हार्दिकाभिनन्दन करता हुआ कृतज्ञता पूर्ण उपकार मानता हूँ, पर मैं पवित्र जिनधर्मोपासक हूँ। इस प्रकार के मन्त्र तन्त्र एवं पाखण्ड धर्म को मैं धर्म समझ कर विश्वास नहीं करता। धर्म रूप अक्षय निधि के बलिदान के बदले भौतिक-दुःखोत्पादक-आध्यात्मिक सुख विनाशक अक्षय कोष को प्राप्त करना मुझे मनसे भी स्वीकार नहीं । क्षणिक प्रलोभन के बाह्य सुख आवेश में पारमार्थिक जीवन को मिट्टी में मिलाना निरी अज्ञानता है। यदि आप अपनी सिद्धि से दुनियां को सुखी बनाना चाहते हैं तो संसार में कई लोग इसकी निनिभेष दृष्टि पूर्वक आशा लगाये बैठे हैं, उन पर ही आपश्री उदार कृपा करें। मुझे तो मेरे धर्म एवं कर्म पर पूर्ण विश्वास है। - गार्हस्थ्य-जीवन-यापन करने योग्य अवर्णनीय यातनाओं का अनुभव करने वाले लाडुक की इस प्रकार वार्मिक निश्चलता, सुदृढ़ता, एवं स्थिरता को देख योगी के मानस क्षेत्र में पाशा-निराशा का विचित्र द्वन्द्व मच गया। द्रव्य के क्षणिक प्रलोभन के बदले धर्म परिवर्तन करवाने की विशेष आशा से आये हुए सविशेषोत्सुक योगी को लाडुक का सूखा प्रत्युत्तर श्रवण कर आश्चर्य के साथ ही साथ अपनी मनोगत सम्पूर्ण प्राशाओं पर पानी फिरने का पर्याप्त दुःख हुआ। मुख पर ग्लानी एवं उदासीनता की स्पष्ट रेखा झलकने लगी फिरभी चेहरे की उद्विग्नता को कृत्रम हर्ष से छिपाते हुये लाडुक को पूछने लगे-लाडुक ! तुन्हें ऐसा अपूर्व और निश्चल ज्ञान किसने दिया है ?
लाडुक हमारे यशस्वी गुरुदेव श्रीदेवगुप्तसूरि बड़े ही ज्ञानी एवं सुविहित महात्मा हैं; उन्हीं की महती कृपा दृष्टि का कुछ अंश मुझ अज्ञ को भी प्राप्त हुआ है । उनके जैसे उत्कृष्ट त्यागी वैरागी महात्मा अन्य दूसरे मिलना जरा दुर्लभ है।
___ योगी-अच्छा, त्याग एवं निस्पृहता की अमिट छाप डालने वाले आप श्री के गुरुदेव इस समय कहां पर वर्तमान हैं ? क्या मैं उनसे मिलना चाहूँ तो मिल सकता हूँ? __लाडुक-बेशक, के कुछ ही दिनों में यहाँ पधारने वाले हैं, ऐसा सुना गया है । आपश्री भी कुछ दिवस पर्यन्त यहीं पर विराजित रहें तो आप भी उन महा पुरुष के दर्शन करके अपने आपको कृतकृत्य बना सकेंगे।
__ एकदा लादुक अपने मकान का स्मर काम करवा रहा था तो भूमि खुदवाने पर सुकृत पुञ्जोदय के कारण भूगर्भ से उसे एक बड़ा भारी निधान प्राप्त हो गया। अस्तु, वह विचार करने लगा-'अह सूरीश्वरजी के शुभागमन की खबर
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org