SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 683
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० सं० १०११-१०३३] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यदि मैं धर्म का बलिदान कर धन के किञ्चित् प्रलोभन से उस योगी की जाल में फंस जाता तो भविष्य में मेरी क्या दशा होती ? पवित्र और आत्मकल्याणकारी धर्म के मुकाबले धन की क्या कामात वास्तव में धन के व्यामोह में धर्म का त्याग करना निश्चित ही अदूर दर्शिता है । जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त ने तो मुझे इस अवस्था में अपनी सम्पूर्ण दशाओं का सक्रिय अनुभव करवा कर कर्मवाद पर अटूट श्रद्धाशील बना दिया है। जैन धर्म के सर्वज्ञ गदित अनुभवात्मक सिद्वान्तों के समक्ष अन्य दर्शनीय सिद्धान्त क्षणभर भी नहीं स्थिर रह सकते हैं । धन्य है परम-पवित्र, पाप भञ्जक, मङ्गल कारी जिनधर्म को और धन्य है दृढ़ धर्म प्रेम में रंगे हुए निश्चल जिनधर्मानुयायियों को इस प्रकार भक्ति भावना में डूबे हुए भव्य भावना भूषित लाडूक ने इस निधान को भी संसार-बन्धन और भव वृद्धि का कारण समझ अनन्त पुण्योपार्जन के साधन रूप सप्तक्षेत्रों में लगाना प्रारम्भ कर दिया । गार्हस्थ्य जीवन की असह्य यातनाओं को दैन्यवृत्ति से सहन करने वाले स्वधर्मी बन्धुओं को प्रचूर पारेमाण में आर्थिक सहायता कर अपने जीवन को सार्थक करने लगा। आशा पूरक दान वृत्ति से याचकों के द्वारा यशः सम्पादन करने में अपने आपको सौभाग्यशील समझने लग गया। संघ निस्सारण, स्वामीवात्सल्य संघ पूजा एवं ज्ञानार्चनादि धार्मिक अङ्गों की आराधना करने में उदार वृत्ति से द्रव्य का सदुपयोग कर जैन म के बढ़ते हुये प्रभाव को प्रभावना के द्वारा बढ़ाने लग गया। योगी को उसकी गजब की दान शक्ति जब किसी तरह शालूम हई कि मैं जिसे साधारण स्थिति का मनुष्य समझता था वह इस कदर दान पुण्य कर रहा है, तो बड़ा आश्चर्य हुआ। उसकी इस आशाजनक, सन्तोष पूर्ण स्थिति को देख कर तो योगी का रहा सहा उत्साह भी धराशायी (नष्ट) होगया । वह जिस कार्य के लिये आया था, उसमें अपने आपको पूर्ण निष्फल सगझ अपना शाम मुंह लेकर बैठ गया। एकदा पुण्यानुयोग से पार्श्व कुलकमल दिवाकर, भव्यपुण्डरीक-विबोधक, प्रत्यूषप्रार्थ्य परम पूज्य आराध्य देव प्राचार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वरजी का पदार्पण ग्रामानुग्राम लोद्रवपट्टन नगर में होगया। संसार जलनिधितरूप, पुरुषवरपुण्डरीक आचार्यश्री के शुभ शुभागमन से देवपट्टनपुर निवासियों के हर्ष का पारावार नहीं रहा । भव्य लाडूक ने भक्तिरस से ओतप्रोत हृदय से सवालक्ष द्रव्य व्यय कर श्रीसंघ के साथ सूरीश्वरजी का प्रवेश महोत्सव बड़े शान और समारोह के साथ किया । जब उस कृत्रिम योगी को खबर लगी कि महादानी लाडूक के गुरु का पदार्पण इस नगर में होगया है तब वह लाडुक को साथ लेकर परमहितैषी सूरिजी के पास गया और अपने मन में जो इस प्रकार की शंकाएं थी कि आत्मा के साथ कों का सम्बन्ध कैसे, क्योंकर होता है ? और उनका फल किस प्रकार मिलता है ? स्याद्वाद का वास्तविक रहस्य क्या है ? जैन दर्शन के मुख्य २ सिद्धान्त क्या हैं ? आदि सूरिजी के सामने उपस्थित की। सूरिजी उस भव्य योगी को ऐसे उत्तम ढंग से समझाया कि लादुक और योगी के विचारों में एकदम विरक्ति पैदा होगई । संसार उन्हें अरुचिकर कारागृह रूप लगने लग गया। जीवन के महत्व को समझ कर वे सूरिजी के पास ही दीक्षा लेने के इच्छुक बन गये । सूरीश्वरजी को विरक्ति का कारण बतला कर अनुमति प्राप्त्यर्थ वे वंदन कर स्वस्थान लौट गये। जब लाडुक ने अपने कौटम्बिक लोगों को एकत्रित कर अपने वैराग्य के कारण का स्पष्टीकरण किया तो उनका रहा सहा शान्ति सुख भी हवा होगया । वे लोग आश्चर्य के साथ ही साथ बहुत दुःखी होगये । घर के अाधारभूत लाडुक के वियोग को वे क्षण भर भी सहन करने में समर्थ नहीं हुए। ___लाडुक ने भी संसार के सत्स्वरूप को समझा कर कई लोगों को ( उनमें से ) वैराग्यान्वित बना दिये। उनकी पत्री तो उनके साथ ही दीक्षा लेने के लिये उद्यत होगई । बस लाडुक ने अपने पुत्रों को गृहकार्य में स्थापित कर छापने निधान को उन्हें सौंप दिया। पित्रादेशपालक विनयवान पुत्रों ने भी अपने माता पिता योगी प्रवृति भगवती दीक्षेच्छुक भावुकों का, आधा निधान व्ययकर दीक्षा महोत्सा किया । लाडुक ने भी १४१४ मूरिजी और योगी की भेट Jain Education Hernational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy