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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
भासवाल सं० १४३३-१४७४
४७-आचार्यश्री सिद्धसूरि (१०वाँ)
सिद्ध सूरि रितीह नाम्नि सुघड़ गोत्रे सुधर्मा यती । यो मन्त्रस्य सुजान बन्धन विधेरात्मानमापालयत् ॥ दासत्वं सुनिधानमेव कृतवान् प्राप्तः ससूरेः पदम् ।
धर्मस्योन्नयने च देव भवने यत्नस्यकत्रे नमः ॥ आ चार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज अपने समय के अनन्य, परोपकार धर्मनिरत परम प्रतापी,
सहस्ररश्मि की शुभ्र रश्मिराशिवत् तपस्तेज की प्रकीर्णता से प्रखर तेजस्वी, षोडश कला से परिपूर्ण कलानिधि की पीयूषवर्षिणी शान्ति सौख्य प्रदायक रश्मिवत् शीतल गुणधारक, शान्तिनिकेतन, ज्ञानध्यानादि सत्कृत्य कर्ता, उपकेशवंश वर्धक, जिनेश्वर गदित यमनियम परायण, जिनधर्म प्रचारक, महा प्रभावक सूरि पुङ्गव हुए।
इस रखगर्भा भरत वसुन्धरान्तर्गत मेदपाट प्रान्तीय देव पट्टन नामक विविध सरोवर कूप तड़ाग वाटिकोपवन उपशोभित, उत्तुंग २ प्रसाद श्रेणी की अट्टालिकाओं से जनमनाकर्षक, परम रमणीय नगर में
आपश्री का जन्म हुआ। आप सुघड़-गौत्रीय पुण्यशील शाह चतरा की सुमना भार्या भोली के 'लाडुक' नामाङ्कित बड़े मनस्वी पुत्र थे। आपके पूर्वज अक्षय सम्पत्ति के आधार पर अनेक पुण्योपार्जन कार्य कर अपने पवित्र नाम को जैन इतिहास में अक्षय बना गये थे। करीब तीन बार शत्रुञ्जय, गिरनारादि पवित्र तीर्थाधिराजों की यात्रा के लिये विराट् संघ निकाले व संघ में आगत स्वधर्मी बन्धुओं को स्वर्ण मुद्रिकादि योग्य प्रभावनाओं से सम्मानित किया ! दशन पद की आराधना के लिये शत्रुञ्जय तीर्थ पर प्रभु पार्श्वनाथ का जिनालय बनवाया । मुनियों के चातुर्मास का अक्षय लाभ लेकर लक्षाधिक द्रव्य से ज्ञानार्चना की व ज्ञान भण्डार की स्थापना की।
पर काल की गति अत्यन्त ही विचित्र है : पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मों की कराल कुटिलता तदनुकूल फलास्वादन कराये बिना नहीं रहती हैं इसी से तो शास्त्रकारों ने भव्य जीवों के हितार्थ स्थान २ पर भीषण यातनाओं का दिग्दर्शन करवाते हुए “कडाण कम्माण न मोक्ख अत्यि" लिखा है। मेधावी-मननशील मनीषियों को सतत आत्म स्वरूप विचारते हुए कर्मोपार्जन कार्यों से भयभीत रहना चाहिये । निकाचित कर्मों का बंधन करना सहज (उपहास मात्र में ही सम्भव ) है, पर उनके द्वारा उपार्जित कटु फलों का अनुभव करना भुक्त भागियों से ही ज्ञातव्य है।
धन्य वे श्रमणवत् उदारवृत्ति से लाखों रुपयों को व्यय करने वाली चतरा की सन्तान लाडुक आज लाभान्तराय की भीषणता के कारण लक्ष्मीदेवी के कोप का भाजन बन गया था । गृहस्थोचित साधारण स्थिति के होने पर भी धर्म प्रिय लाडुक ने अपने नित्य नैमेत्तिक धार्मिक कृत्यों में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आने दी। उधर अन्तराय कर्म की प्रबलता से दीनता एवं गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी प्रापचिक जटिलता अपना दो कदम भागे बढ़ा रही थी और इधर लाडुक उन सब बातों की उपेक्षा करता हुआ धर्मकार्य में अग्रसर होवा जारहा था । देवी सहायिका का सकल मनोरथ पूरक, कल्पवृक्ष-चिन्तामणि रत्नवत् वाञ्छितार्थप्रद सुदृढ़ इष्ट होने पर भी अपने अपने कर्मों के विपाकोदय को सोच कर आर्थिक चिन्ता निवारणार्थ देवी की आरामरुधर का लोद्रवापुर पट्टन
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