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श्राचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं२ ११७८-१२३७
३-कुजोड़ विवाह का भी यही परिणाम है । ४-कन्या विक्रय से सुयोग्य युवक अविवाहित रह जाते हैं । ५-विधवा और विधुर एवं कुमारों का मृत्यु से संख्या का कम होना । ६-इस संकीर्णता के कारण बहुत से लोग स्वधर्म छोड़ अन्य धर्म में जाने से भी समाज की
संख्या कम होती जा रही है। ७-कई लोग अपनी आजीविका के साधनों के अभाव में भी स्वधर्म का त्याग कर अन्य सामज में
जामिलने से भी अपनी संख्या कम होती है । इत्यादि । और भी कई कारण हैं जिससे समाज दिनवदिन कम होती जा रही है तब दूसरी तरफ आमद के दरवाजों पर ताले नहीं पर वनसी
सिलाएं ठोक दी गई हैं कि सौ वर्षों में भी कोई एक भी व्यक्ति नहीं बढ़ सकता है ! साधर्मीभाइयों के साथ बेटी व्यवहार नहीं होने के भयंकर परिणाम के लिये आपको दूर जाने की आवश्यक्ता नहीं है केवल एक गुजरात में ही देखिये श्रोसवाल, पोरवाड़, श्रीमाल के अलावा भावसार, पाटीदार, गुजरवनिया, मांढवणिय। नेमा वणिया और लाड़वादि २०-२५ जातियां जैनधर्म पालन करती थी जिनके पूर्वजों के बनाये हुए जैन मन्दिरों के शिलालेख भी आज विद्यमान हैं पर उनके साथ बेटी व्यवहार नहीं होने से इस बींसवी शताब्दी में ही लाखों मनुष्य विधर्मी बन गये हैं वे केवल विधर्मी बन के ही चुपचाप नहीं रह गये पर जैन धर्म की निंदा करके सैकड़ों, हजारों को जैन धर्म से विमुख बना रहे हैं।
यह दुःख गाथा केवल मैं ही समाज को नयी नहीं सुना रहा हूँ पर समाज का जन समूह जो थोड़ा बहुत समझदार है वह अच्छी तरह से जानता है पर किसी के घुटने में ताकत नहीं है कि वह कूद कर कार्य क्षेत्र में बाहर आवे । जैन समाज ऐसा अज्ञान पूर्ण समाज नहीं है पर वह व्यापार करने वाला समाज है। प्रतिवर्ष दूकानों के नफे नुकसान के आंकड़े मिलाना जानता है अतः समाज के घाटे नफे के लिये समझाने को अधिक परिश्रम की भी जरूरत नहीं है यदि इस विषय में प्रत्येक व्यक्ति से पूछा जाय या उनकी सलाह ली जाय तो सैकड़ें नबे मनुष्य सलाह देंगे कि क्या सेठिया, क्या अरुणोदिया, क्या दशा, क्या बीसा, जैनधर्म के पालन करने वाले तमाम एक संगठन में प्रन्थित हो जाना चाहिये। सबके लिये नहीं पर समाज में दो चार सो आगेवान तैयार हो जाय कि वे सबसे पहले कहें कि हम बेटी देंगे और लेगें फिर देखिये कितनी देर लगती है पर हमारे यहां तो चक्र ही उलटा चल रहा है । सभा सोसायटीयों में प्रस्ताव पास करने पर भी हमारे बड़ाओं को तो बड़ा बराबरी का ही घर होना चाहिये, जब तक स्वार्थ त्याग नहीं करेंगे वहां तक समाज सुधर नहीं सकता है । यहि एक दो व्यक्ति कर भी ले तो उसको न्याति से बाय काट की सजा मिलती है।
खैर, मेरी तो भावना है कि अभी समय है जब तक नब्ज में गति है तब तक तो इलाज किया जाय तो मरीज के जीवित रहने की उम्मेद है । श्वास के छूट जाने पर तो हेमगर्भ की गोलियां भी मिट्टी के समान हो है । अन्त में हम शासनदेव से प्रार्थना करेंगे कि वे हमारे समाज के अप्रेश्वरों को सद्बुद्धि प्रदान करें कि सैकड़ों वर्षों से निर्जीव कारण से हमारे भाई समाज से बिछुड़े हुए हैं वे पुनः शामिल होकर समाज की आयुष्य में वृद्धि करें ॥ ॐ शांति ।। महाजनसंघ की संख्या कम होने का कारण
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