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________________ वि० सं० १०३३-१०७१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास परमाराध्य, प्रत्यक्ष पार्थ्य, परमपिता परमात्मा श्री जिनदेव के मन्दिर निर्माण रूप परम पावन कार्य में आप लोग विघ्न रूप अन्तराय कर्मोपार्जन क्यों कर रहे हैं ? यदि आपके हृदय में धार्मिक इर्ष्या की ज्वाज्वल्य नाम ज्वाला ही प्रज्वलित हो रही हो या आपको अपने शास्त्र पाण्डित्य के मिथ्याभिमान का जोशीला नशा ही इस प्रकार के अनुचित कार्य में प्रवृत्ति करवा रहा हो तो आपके इप्सित विषय के पारस्परिक शास्त्रार्थ से आपका नशा मिटाया जा सकता है। मेरे साथ मनोऽनुकूल विषय पर शास्त्रार्थ कर आप लोग निर्णय करले कि आपका अहमत्व कहां तक ठीक है? मुनि जम्बुनाग के सचोट शब्दों से ब्राहाणों के हृदय में अपमान का अनुभव होने लगा उन्होंने न्याय व्याकरण, व दार्शनिक विषयों को छोड़कर अपने सर्व प्रिय ज्योतिष विषय में शास्त्रार्थ करना निश्चित किया। वे लोग इस बात को समझ रहे थे कि जैन श्रमण धर्मापदेश देने में या दार्शनिक तत्वों का प्रतिपादन करने में ही कुशल होते हैं, ज्योतिष विषय में नहीं। अतः ज्योतिष निर्णय में वे लोग हमारी समानता करने में या हम तक पहुँचने में सर्वथा असमर्थ हैं। इस विषय में वे हमको कभी पराजित कर ही नहीं सकेंगे इस मिथ्याभिमान के कारण ज्योतिष के विषय को ही शास्त्रार्थ का मुख्य विषय बना लिया। ..मुनि जम्बुनाग ने भी सर्वतोमुखी विद्वत्तासम्पन्न प्रतिभा के आधार पर ब्राह्मणों के उक्त शास्त्रार्थ विषय को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके लिये मध्यस्थ वृति पूर्वक जजमेन्ट प्राप्त करने लिये दोनों पक्ष के महानुभावों ने लुद्रुवा नरेश को ही मध्यस्थ निर्वाचित किया। राजा ने जज चुन लिये जाने पर उन्होंने दोनों की परीक्षार्थ (मुनि जम्बुनाग एवं ब्राह्मणों को) अपना ( राजा का) अलग २ वर्षफल लिख लाने का आदेश किया। साथ ही यह घोषणा की कि-मेरा गत भाव विभावक वर्ष फल जिसका अधिक होगा वही विजयी समझा जायगा । इस पर सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणों ने राजा के दिन २ का भावी फल लिखा तब जम्बुनाग ने घड़ी २ का भावी फल लिखा। क्रमशः वर्ष फल के लेखन कार्य के समाप्त हो जाने पर दोनों पक्ष के महानुभावों ने अपने अपने लेख राजा को सौंप दिये । राजा ने उनको पढ़कर (बन्धी खामण) खजाश्ची को सौम्पते हुए कहा-"इनको सर्वथा सुरक्षित रखदो, जिसका लिखना सत्य होगा वही विजयश्री प्रतिष्ठित किया जायगा" । अस्तु, जम्बुनाग ने अपने भावीफल में लिखा था कि, अमुक दिन में इतनी घड़ी होने पर शत्रु यवन सम्राट मुम्मुचि पचास हजार घोड़ों के साथ सुसनद्ध हो तेरे राज्य को लेने की इच्छा से आधेगा। यदि पड़ाव करने के समय आप यवनों पर आक्रमण करोगे तो यवन आपके हस्तगत हो जावेंगे। हे राजन् ! उस समय आप यह विचार मत करना कि मेरे पास फौज कम है और शत्रु के पास फौज विशेष है फिर मैं इसको कैसे जीत सकूँगा । देखो, यवन सम्राट को आप जीत सकोगे, विश्वास कराने वाला तुझे यही संकेत जानना चाहिये कि-जब आप यवनों को जीतने को जानोगे, तब मार्ग में आप एक पाषाण के दो टुकड़े करोगेविश्वास कर लेना कि मैं अवश्य जीतूंगा। इस प्रकार जम्बुनाग मुनि के द्वारा लिखे हुए समय में ही यवनों ने अचानक आकर पड़ाव डाल दिया राजा भी उस लिखित संवाद के विश्वास पर अपने हृदय में धैर्य धारण कर चंचल घोड़ों को एवं अपनी फौज को साथ में ले पृथ्वीतल को कम्पाता हुआ यवनों की ओर चल पड़ा। अपने नगर के उद्यान के निकटस्थ मन्दिर में स्थित सुस्वान नाम की अपनी गौत्र देवी को जीतने की इच्छा से नमस्कार करने के लिये गया। ऊपर लिखा हुभा मुनि जम्बुनाग से लगाकर वाचक पमप्रभ तक का सम्बन्ध उपकेश गच्छ चरित्र श्लोक ३५० से जगा कर श्लोक ४३९ तक का अनुवाद पहा है स्थानाभाव मब श्लोड यहाँ इसलिये नहीं दिये गये हैं किसी अन्धक भन्त में उपकेका गच्छ चरित्र भी मुद्रित करवा दिया जायगा १४२४ Jain Education International मुनि जम्बुनाग द्वारा ब्राह्मण पराजय www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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