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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १४३३-१४७४
उस मन्दिर के अग्र भाग में स्थित एक पाषाण स्तम्भ को देख, मुनि जम्बुनाग के कथन का विश्वास जानने के लिये उस स्थम्भ को खड़ा से आहत किया तो एक दम वह दो टुकड़े होगये । मुनि जम्बुनाग के वचनों की उक्त प्रतीति के कारण राजा ने उस यवन सेना पर एकदम आक्रमण किया। जिस प्रकार मंदराचल पहाड़ ने सागर मथा वैसे ही परिवर भाटी राजा ने यवन सैन्य को मथ डाला। क्षण भर में यवन राज मुम्मुचि को कारागर में आबद्ध कर उसका सारा खजाना लूट लिया । यवन सेना अनाथ (मालिक रहित) होकर नष्ट भ्रष्ट हो चारों दिशाओं में भाग गयी। भाटी राजा भी मुम्मुचि को साथ में ले, आयार्य जम्बुनाग के पास आया और प्रणाम कर बोला-पूज्य गुरुदेव ! आपके आदेश और प्रसाद से मैंने इस शत्रु को जीता है। प्रभो! आपका कथन सौलह पाना सत्य हुआ। अतः अब मुझे मेरे योग्य सेवा कार्य फरमाकर कृतार्थ करें। इस पर मुनि ने कहा-हम निस्पृहियों के लिये क्या जरुत है ? हमें तो किसी भी वस्तु या अनुकूल आदेश की आवश्यकता नहीं पर फिर भी आपकी आन्तरिक अभिलाषा मेरे मनोगत भावों को पूर्ण करने की है तो आप अपने शहर में जिमराज का एक भव्य मन्दिर बनवाने दीजिये । राजा ने भी गुरु के वचन को तथास्तु कह कर शिरोधार्य कया और ब्राह्मणों को तिरस्कृत कर अपने नगर में जिन मन्दिर का निर्माण करवाया। मुनि जम्बुनाग ने स्वयं भगवान् महावीर का मूल प्रतिबिम्ब स्थापित किया उस दिन से लेकर ब्राह्मणों की भी जम्बुनाग पर उत्तम प्रीति हो गई।
मुनि जम्बुनाग ने साहित्य क्षेत्र में भी सर्वाङ्गीण उन्नति की। आपश्री ने कौन २ से ग्रन्थों का निर्माण किया इसका यथावत् पता तो नहीं चलता है पर इस समय आपके बनाये केवल दो ग्रन्थ विद्यमान हैं। एक वि० सं० १००५ का बनाया हुआ मुनिपति चारित्र तथा दूसरा वि० सं० १०२५ में रचा हुत्रा जिनशतक (स्तोत्र ) नमाका विद्वज्जन प्रशंसनीय चण्डिका शतक के समान ही दुरुइ और अनेक अर्थों वाला, विद्वानों के मन को मुग्ध करने वाला-ग्रन्थ है । इस प्रकार की साहित्य सेवा के अलावा आपने अनेक मांस मदिरा सेवियों को भी प्रतिबोध कर जैनधर्म की दीक्षा दी है।
निधी जम्बुनाग के अन्यान्य शिष्यों में देवप्रभ नामके महाप्रभावक, महत्तर पद विभूषित शिष्य हुए। आपने भी श्री जिनशासन की बहुत ही प्रभावना की देवप्रभ के पश्चात् आपके शिष्य श्रीकनकप्रभ महत्तर पद पर अवस्थित हुए। कनकप्रभ के शिष्य जिनभद्र मुनीश्वर हुए जिनको गच्छ के अधिनायकों ने उपाध्याय पद प्रदान किया । उक्त तीनों भहापुरुषों का जीवन चरित्र, 'उपकेश गच्छ चरित्र' में विशद रूप से नहीं मिलता, तथापि पट्टवल्यादि अन्य ग्रन्थों से पाया जाता है कि आपने जैन शासन का बहुत ही अभ्युदय किया ।।
___ एक दिन जिनभद्र मुनीश्वर अपने शिष्य समुदाय के साथ विहार करते हुए गुर्जर प्रांत में पधारे। उस ससय पाटण में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि प्रतिबोधित राजा कुमारपाल का राज्य था । हेमचंद्राचार्य का उन पर पर्याप्त प्रभाव था। श्री उपाध्यायजी म० ने पाटण में अपना व्याख्यान क्रम प्रारम्भ रक्खा । वैराग्योत्पादक व्याख्यान श्रवण से एक क्षत्रिय कुमार जो सांसारिक सम्बन्ध में पाटण नरेश (कुमार पाल के पहिले के राजा) सिद्धराज के भतीजा लगता था-संसार से विरक्त हो गया । उपा०जी स० के सन्मुख उक्त क्षत्रिय कुमार ने अपने हृदयान्तर्हित भावों को प्रगट किया । उपाध्यायजी म० ने भी उसके मुख की त्तत्रियोचित स्वाभाविक प्रविमा व शुभ चिह्न, लक्षणों को देखकर यह अनुमान लगा लिया कि यदि यह संसार से विरक्त हो दीक्षित होवेगा तो अपने साथ ही अन्य कितने ही भावुकों का कल्याण व जिन शासन का अभ्युत्थान करेगा। इस पर इसकी स्वयं की भावना भी दीक्षा लेने की है ही अतः उसकी माता को समझा कर [ तुम्हारा पुत्र बड़ा ही भाग्यशाली एवं वर्चस्वी है। यदि यह दीक्षित हो जाय तो घर के नाम को उज्वल करने के साथ ही साथ जिन शासन को उत्कर्षावस्था में पहुंचाने वाला व अपने नाम के साथ ही साथ माता पिताओं के एवं कुल के नाम को अपने असाधारण कार्यों से जैन संसार में अमर करने वाला होगा] जम्बुनाग की परम्परा
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arrammarunawwar
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