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वि० सं० ८३७-८६२]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
हैं। उनके तप तेज का अतिशय प्रभाव मेरे ऊपर पड़ चुका है। मेरे स्थान पर आज से कोई भी किसी भी जीव का वध नहीं कर सकेगा। मेरे मन्दिर के पीछे पश्चिम दिशा में नव हाथ दूर एक निधान भू भाग में स्थित है उसे निकाल कर धर्म कार्य में सदपयोग करना । वह तुम्हारे ही भाग्य का है अतः कल ही खोद कर निकाल लेना । इतना सुनते ही रावजी एक दम चोंक बैठे। वे एक दम आश्चर्य सागर में गोते खाने लगे कि ये देवी के ही वाक्य है या स्वप्न है ? सारी रात इस ही प्रकार की विचित्र २ विचार धारा में व्यतीत हुई । प्रातःकाल होते ही सूरीश्वरजी की सेवा में उपस्थित हो वंदन करके स्वप्न का सारा वृत्तान्त अथ से इति पर्यन्त उन्हें कह सुनाया तब आचार्यश्री ने कहा-रावजी ! आप परम भाग्यशाली हैं आपने जो कुछ देखा एवं सुना वह स्वप्न नहीं किन्तु देवी भगवती को ही साक्षात् सूचना है। अतः अब तो देवी के नाम पर होने वाली जीव हिंसा को रोकने के लिये ग्राम भर में अमारी घोषणा हो जानी चाहिये। साथ ही। धार्मिक कार्यों के आधारानुसार जैनधर्म की प्रभावना एवं उन्नति भी करनी चाहिये । आचार्यश्री के उक्त कथन को हृदयङ्गम कर रावजी अपने घर आये और मंत्री शाह मुदा को हुक्म दिया कि-"ग्राम भर में देवी के नाम पर कोई किसी भी जीव की बलि नहीं चढ़ावे" इस प्रकार की उद्घोषणा करवादो। मंत्री ने भी रावजी के आदेशानुसार ग्राम के चतुर्दिक में अमारी पडहा उक्त घोषणा के साथ बजवा दिया। इस विचित्र एवं नवीन धोषणा को सन पाखण्डियों के हृदय में खलबली मचगई। वे लोग श्राचार
दोषारोपण करने लगे की यह सेवड़ा ग्राम भर को मरवा डालेगा। इस प्रकार की इर्ष्याग्नि के प्रज्वलित होने पर भी राज सभा के सामने उन बेचारों की कुछ भी दाल नहीं गल सकी। जब नवरात्रि के नव ही दिन आनन्द मंगल से निकल गये और किसी भी प्रकार का उपद्रव नहीं हुआ तब जाकर सूरिजी का जनता पर पूरा २ विश्वास हुआ।
रावजी भी देवी के बताये हुए निर्दिष्ट स्थान से दूसरे दिन निधान निकाल कर ले आये । सूरिजी से उसका सदुपयोग करने के लिये परामर्श किया तो आचार्यश्री ने कहा-रावजी । गृहस्थों के करने योग्य कार्यों में जिन मन्दिर का निर्माण करना, तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकालना, स्वधर्मी बन्धुओं की हर एक तरह से सहायता करना व अहिंसा धर्म का विस्तृत प्रचार करना इत्यादि मुख्य २ कार्य हैं।
राव राखेचा ने भी सूरिजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर अपने ग्राम में एक विशाल मन्दिर व भगवान् महावीर की मूर्ति बनवाना प्रारम्भ किया। तीन बार तीर्थों का संघ निकाल कर यात्रा जन्य पुण्य सम्पादन किया । जैन मुनियों के चातुर्मास करवा कर परम प्रभावक श्री भगवती सूत्र का महोत्सव कर संघ को सूत्र सुनवाया । स्वधर्मी बन्धुओं को सहायता प्रदान कर सेवा का सच्चा व आदर्श लाभ लिया। जीव दया के लिये अपूर्व उद्यम कर अनेकों मूक जीवों को अभय दान दिया। जिन शासन में आप भी प्रभावक पुरुषों की गिनती में जैन धर्म के प्रचारक पुरुष हुए।
जिस समय जैनाचार्यों का अहिंसा परमोधर्म के विषय खूब जोरों से प्रचार हो रहा था ग्राम नगरों में सर्वत्र अहिंसा भगवती का झंडा फहरा रहा था तब पाखण्डियों ने जंगलों में पहाड़ों के बीच देव देवियों के छोटे बड़े मन्दिर बना कर वहाँ निःशंकपने जीवों की हिंसा कर मांस मदिरा को खाते पीते एवं व्यभिचार करने लग गये थे फिर भी भाग्यवशात् कहीं-कहीं उन जंगलों में भी उन प्राचार्यों का पदार्पण हो ही जाता था और वे अपने अतिशय प्रभाव एवं सदुपदेश द्वारा उन जघन्य कर्म का त्याग करवा कर सद्धर्म की राह पर लाकर उन जीवों का उद्धार कर ही डालते थे अतः उन पूज्याचार्य का समाज पर कितना उपकार हुआ वह हम जबान द्वारा कह नहीं सकते हैं।
राव राखेचा की सन्तान राखेचा कहलाई। आपके चार पुत्र व तीन पुत्रिये व और भी बहुत सा. परिवार था । वंशावलियों में लिखा है
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राव राखेचा की धर्म भावना
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