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व० सं० ७७८ से ८३७]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
खोदना प्रारम्भ किया तो अन्दर से पार्श्वनाथ भगवान् की मनोहर मूर्ति प्रगट हो गई । प्राचार्य अभयदेव सूरि ने 'जयतिहुश्रण' स्तुति बनाकर प्रमुस्तुति की और श्रीसंघ ने मूर्ति का विधि पूर्वक प्रक्षालन किया जिसको शरीर पर लगाने से आचार्यश्री का रोग चलागया। और स्तम्भन तीर्थ की स्थापना हुई।
श्री मल्लवादी के शिष्य के उपदेश से श्रावकों ने चतुर एवं शिल्पज्ञ कारीगरों को बुलवाकर जिनेश्वर का विशाल एवं सुंदर मन्दिर बनवाया। इस मन्दिरजी की देख रेख के लिये अप्रेश्वर की ओर से उसको प्रतिदिन एक द्रम्म के रोजगार से रक्खा । उन्होंने उस द्रव्य को अपने कार्यों में खर्च करने से बचाकर उसी मन्दिर में एक देहरी करवाई वह अद्यावधि विद्यमान है जब मन्दिर तैय्यार होगया तो आचार्य श्री अभयदेव सूरि से उसकी प्रतिष्टा करवाकर जैनधर्म की प्रभावना की।
तदन्तर धरणेन्द्र ने सूरिजी को कहा-प्रभो! आपने जो ३२ काव्य का स्त्रोत्र बनाया है उसमें से दो काव्य निकाल दीजिये । कारण, दो काव्यों के रहने से कोई भी व्यक्ति इन काव्यों को पढ़ेगा तो तत्काल मुझे पाकर हाजिर होना पड़ेगा इससे मुझे कष्ट होगा। सूरिजी ने भी भविष्य को सोचकर धरणेन्द्र के कथनानुसार दो काव्य निकाल दिये पर अब भी इस स्त्रोत का पाठ करने वालों का संकट दूर हो सकता है ।
इस तीर्थ के प्रथम स्नात्र का सौभाग्य धवलका के श्रीसंघ को मिला। इस स्म्तभन पार्श्वनाथ की मूर्ति की प्राचीनता के लिये मूर्ति के पृष्ठ भाग पर शिलालेख खुदा हुआ है जिसमें लिखा है कि इक्कवीसवें नमिनाथ के शासन के २२२२ वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् गौड़ देश के आसाढ़ नामक श्रावक ने तीन प्रति. माएं बनाई उसके अन्दर की एक यह प्रतिमा है।
प्राचार्य जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् शासन प्रभावक श्री अभयदेव सूरि ने पाटण के कर्ण राजा के राज्यत्व काल में सं० ११३५ स्वर्गवास किया। आचार्य अभयदेवसूरि ने हर तरह से शासन की बहुत ही प्रभावना की । ऐसे परम प्रभावक आचार्यश्री के गुण, श्लाघनीय एवं आदरणीय हैं । सकल जैन समाज पर आपका महान् उपकार हुआ है।
प्राचार्य कादीदेवसरि स्वर्ग सदृश गुर्जर देश के अष्टादशशति प्रान्त में मदुहृत (मदुश्रा) नामका एक अत्यन्त रमणीय प्राम था। यहां पर प्राग्वटवंशावतंस श्री वीरनाग नाम के एक कुलसम्पन्न घराने के गृहस्थ रहते थे। इनकी धर्मपत्नी का नाम जिनदेवी था। एक दिन रात्रि में जिनदेवी चन्द्र का स्वप्न देख कर जागृत हुई । प्रातःकाल होते ही उसने अपने गुरुदेव आचार्य चन्द्रसूरिजी को अपने स्वप्न का हाल सुनाया। स्वप्न को सुन कर सूरिजी ने कहा-बहिन ! यह स्वप्न अत्यन्त शुभ एवं भावी अभ्युदय का सूचक है। तेरे भाग्योदय से देव-चन्द्र के समान कोई पुण्यशाली जीव अवतरित हुआ होगा। जिनदेवी ने सूरिजी के वचनों को शुभ एवं आशीर्वाद रूप समझ कर खूब ही हर्ष मनाया । बास्तव में भाग्योदय का हर्ष किस प्राणी को न हो ?
समयानन्तर माता जिनदेवी ने एक मनोहर पुत्र रत्न को जन्म दिया जिस का नाम पूर्णचन्द्र रक्खा । क्रमशः जब पूर्णचंद्र आठ वर्ष का हुआ तो एक दिन प्राम में उपद्रव ने अपना पैर पसार लिया। अनन्योपाय न होने से वीरनाग मदुहत प्राम को छोड़ कर लाट देश के भूषण स्वरुप भरोंच पत्तन में चलागया।
भाग्यवशात् चन्द्रसूरि का भी वहां पर पदार्पण हो गया। वीरनाग को भरोंच आया हुआ देख कर १२५४
स्तम्भन तीर्थ की स्थापना
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