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वि० पू० ५२०-५५८ वर्ष]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अर्थात् कहीं कहीं यथार्थ में जैन स्मारक गलती से बोद्ध वर्णन किये गये हैं ।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि विद्वानों ने कई जैनों के स्मारकों को बोद्धों के ठहरा दिये गये थे पर हम लिख आये हैं कि सत्य छीपा नहीं रहता है । मथुरा में यह एक ही स्तूप जैनों का नहीं था पर जैन शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि एक समय मथुरा में जैनों के सैंकड़ों स्तूप एवं जैन मंदिर थे और जैनाचार्य बड़े बड़े संघ लेकर मथुरा की यात्रा करते थे जैनाचायौँ ने मुथरा में कई बार चतुर्मास भी किये थे और कई बार वादियों से शास्त्रार्थ कर विजय भी प्राप्ति की थी। जैनों में आगम वाचना का बड़ा ही गौरव है और एक वाचना मथुरा में भी हुई थी जो वर्तमान में जैनागम है वह मथुरा वाचना के नाम से खुब प्रसिद्ध है जैनों के अनेक गच्छ है उसमें मथुरा गच्छ भी एक है इससे पाया जाता है कि एक समय मथुरा में जैनों की बहुत अच्छी आवादी थी और उस समय मथुरा एक जैनों का केन्द्र समझा जाता था वर्तमान मथुरा का कंकाली टीला का खुदाई काम से बहुत सी प्राचीन मूर्तियाँ स्तूप अयगपट्ट आदि स्मारक चिन्ह-खण्डहर मिले हैं अतः मथुरा से मिला हुश्रा प्राचीन स्तूप जैन धर्मियों के बनाया हुआ अर्थात् जैनों का गौरव प्रकट करने वाला स्तूप है । मथुरा के लिये पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है।
-सांचीपुर स्तूप-यह स्थान प्रावंती प्रान्त में आया हुआ है । श्रावंति (मालवा) प्रान्त दो विभागों में विभाजित हैं १-पूर्वावंती २-पश्चिमावंती। जिसमें पश्चिम की राजधानी उज्जैन नगरी तब पूर्व की राजधानी विदिशा नगरी थी। विदिशा नगरी उस समय खूब धन्य धान्य समृद्ध एवं व्यापार की मंडी गिनी जाती थी विदिशा के पास में ही सांचीपुरी आ गई है वहाँ पर जैनों के ६०-६२ स्तूप हैं जिसमें बड़ा से वडा स्तूप ८० फिट लम्बा ७० फिट चौड़ा तथा छोटा से छोटा स्तूप ३० फिट लम्बा और २० चौड़ा इतने विशाल संख्या में एवं विशाल स्तूप होने से ही इसका नाम संचयपुरी सांचीपुर हुआ था और एक समय इस सांचीपुरी को जैन अपना धाम तीर्थ भी मानते थे पास में ही विदिशानगरी थी और उस विदिशा नगरी में भ० मह वीर के मौजूद समय की महावीर मूर्ति भी थी जिसकी यात्रार्थ साधारण जैन ही नहीं पर बड़े बड़े प्राचार्य महाराज भी पधार कर यात्रा करते थे इस विषय के जैन श स्त्रों में यत्र तत्र उल्लेख भी मिलते हैं एवं एक समय आर्य महागिरि और आर्य सुहस्तिसूरि विदिश नगरी में उन स्तूप और जीवित भगवान की मूर्ति के दर्शनार्थ पधारे थे जैसे
"दो वि जण वतिदिसं गया तत्थ जियपडितमं वंदिता, अज्ज महागिरी एलकच्छ गया, गयग्गपथ वंदिया, तस्स एलकच्छं वामं तं पूब्वं दंसाण्णपुरं नयर आसी,+ ++ ताहे दंसाण्णपुरस्स, एलकच्छ नामजायं तत्थ गयग्गपयगो पब्बओ+++तत्थ महागिरी भतं पच्चक्ख देवतंगया+ x सुहत्थी वि उज्जेणि जियपडिमंबंदिया"
"आवश्यक सूत्र चूर्णि"
इस लेख से पाया जाता है कि विदिशा एवं सांचीपुरी जैनों का एक धाम तीर्थ था । उज्जैन नगरी से पूर्व दिशा करीब ८०-९० मील के फासले पर विदिशानगरी थी और उज्जनी नगरी से विदिशा का महत्त्व कम नहीं पर किसी अपेक्षा अधिक था यही कारण है कि सम्राट् सम्प्रति का जन्म उज्जैनी में हुआ कई अर्या तक उज्जैन में रहकर राजतंत्र चलाया पर बाद में उसने अपनी राजधानी उज्जैनी से उठा कर विदिशा में
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सांचीपुर के स्तूप
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