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________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०८०-११२४ कर निवृत्ति पाना चाहता हूँ पर इसका विधिविधान शास्त्रानुकुल हो कि जिससे भविष्य में राज्य में सब प्रकार से सुख शांति वर्तती रहे। परिश्तों एवं ब्राह्मणों ने कहा-देव ! राजा के स्वर्गवास के बाद तो पुत्र को राज्य देने की विधि हमारे शास्त्रों में है किन्तु जीवित राजा अपने पुत्र को राज्य दे, इसकी विधि न तो हमारे शास्त्रों में है और न हम जानते ही हैं । इस पर राजा ने वृद्ध मंत्री के सामने देखा कर कहा --- मंत्री जी! आप तो वृद्ध एवं अनुभवी हैं अतः आपकी दृष्टि में जो योग्य विधि हो, वह बतलाइये । मन्त्री ने कहा-राजन् ! मैंने मेरे पूर्वजों से सुना है कि १०८ स्तम्भ का महल बनाया जावे और एक २ स्तम्भ के १०८ पहलु हो और एक २ स्तम्भ के पास राजा और राजकुमार बैठ कर शत्तरंज खेले । स्मरण रहे कि-१०७ स्तम्भ के खेल में कुंवर जीत गया हो और एक खेल में भी राजा जीत जाय तो खेल पुनः प्रारम्भ कर दिया जावे । जब सब स्थानों पर कुंधर जीतता चला जाय तो उसी दिन कुंवर के राज तिलक कर दिया जाय । मंत्री की बुद्धिमत्ता पूर्ण यह विधि उपस्थित नागरिकों को पसंद आगई और सबकी सम्मति से राजा ने तुरत महल बनवाने का आदेश दिया। ___ श्रोतागण ! आप सोच सकते हैं कि इस विधि से क्या कुवर, राजा को कभी जीत सकता है ? कारण १०८ को १०८ से गुणा करने से ११६६४ की बाजी में क्या एक बार भी राजा न जीत सके ? यदि एक पार भी जीत जाय तो खेल पुनः प्रारम्भ हो जाय । अतः न तो ऐसा हो और न कुंवर को राज्य ही मिले फिर भी ऐसा होना तो कदाचित् देवयोग से सम्भव भी है पर हारा हुआ मनुष्य जन्म मिलना तो देवयोग से ही असम्भव है । अस्तु, दुर्लभता से मिले हुए मनुष्य भव को मोक्ष मार्ग की आराधना कर सफल बनाना पाहिये। सूरिजी के व्याख्यान का जनता पर खूब प्रभाव पड़ा पर पुनह पर तो न मालूम आचार्यश्री ने उपदेश रूपी जादू ही डाल दिया ! उसने व्याख्यानान्तर्गत ही निश्चय कर लिया कि मैं सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेकर मनुष्य भव को अवश्य सफल बनाऊंगा । हाथ में श्राये हुए स्वर्णावसर को खोकर पश्चाताप करना निरी अज्ञानता है। सांसारिक सर्व मोह जन्य अनुरागान्वित सम्बन्ध निकाचिंत कर्मों के बन्ध के कारण भत हैं अतः मोह में मोहित होकर आत्म स्वरूप का विचार नहीं करना बुद्धिमन्ता नहीं । इत्यादि विचारों के उत्कर्ष में प्राचार्यदेव का व्याख्यान भी भगवान महावीर स्वामी की जयध्वनि के साथ समाप्त हुआ । क्रमशः व्याख्यान से प्रागत मण्डली भी स्वस्थान गई। पुनड़ अपने घर पर गया और अपने माता पिताओं को स्पष्ट शब्दों में कहने लगा-मैं गुरूमहारान के पास में दीक्षित होकर श्रात्म कल्याण करूंगा-आप, आज्ञा प्रदान करें । पुनड़ की शादी का विचारमय स्वप्न देखने वाली माता पुनड़ के मुख से वैराग्य के और तत्काल की दीक्षा के शब्द कब सुन सकती थी ? वह तत्काल अचेतनावस्था को प्राप्त हुई जब जल हवा के उपचार पुनः से चैतन्यता को प्राप्त हुई। ____ जब जल व हवा के उपचार से चैतन्य दशा को प्राप्त हुई तो पुनड़ को अनुकूल व प्रतिकूल शब्दों से बहुत समझाने लगी परन्तु मातके सर्व प्रयत्न पानी में लकीर खेंचने के समान एक दम निष्फल हुए । पुनड़ के पिता ने पुनड़ को समझाने में कमी नहीं रक्खी किन्तु पुनड़ के वैराग्य का रंग कोई हल्दी के रंग के समान मास्थिर नहीं था कि धोते ही एक दम उतर जाय । उसके हृदय में सूरीश्वरजी का व्याख्यान अच्छी तरह आचार्यश्री का व्याख्यान Jain Education Inter३७jal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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