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________________ वि० सं० ६८५-७२४] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहा mmun waman minimuantumu.se की जा सकती है। मानव देह के सिवाय अन्य देव, नरक, तिर्यञ्च आदि गतियों में मोक्ष भव याग्य धर्म सा. धन नहीं किया जा सकता है । पर इसकी अमूल्यता को सोचे बिना कितने ही अज्ञानी जीव अज्ञानता वश इसे व्यर्थ में खोते हुए, संसारिक पौद्गलिक भोगों में लुब्ध हो इसमें अपने को भाग्यशाली समझते हैं पर, वे ये नहीं सोचते हैं कि सोने की थाल में मिट्टी भर कर सोने की थाल का मूल्य कम कर रहे हैं, उसका नितान्त दुरुपयोग कर रहे हैं । असाध्य अमृत रस से पैरों को धोकर मूर्खता का परिचय दे रहे हैं। हाथी जैसी उत्तम सवारी पर लकड़े का भार डाल कर जनहित कार्य कर रहे हैं। चिन्तामणि रत्न को कंकर की तरह फेंक रहे हैं। उन मनुष्यों की इससे अधिक और अज्ञानता हो ही क्या सकती है ? इस प्रकार भोग विलास एवं प्रमाद में मनुष्य भवको खोदेना कहां तक युक्तियुक्त है । देखिये मनुष्य जन्म की दुर्लभता के लिये शास्त्रकारों ने एक उदाहरण भी दिया है कि बसन्तपुर में राजा अजितशत्रु राज्य कर रहा था। उसके एक शत्रुबल नामक पुत्र था। पिता की मौजदगी में ही राज्य प्राप्त करने की गर्हित अभिलाषा ने उसके मन में जन्म लिया। उसने निश्चय कर लिया कि जब तक पिताजी मौजूद हैं तब तक मुझे राज्य मिलना असम्भव नहीं तो दुष्कर ता अवश्य ही है अतः राज्य पिपासा की बढ़ती हुई कुत्सित इच्छाने उसके हृदय में अपने पिता को मार कर राज्य गादी पर श्रासीन होने की नवीन जननिन्दित अनादरणीय भावना को जन्म दिया । वह अपने पिता-राजा को मारने के लिये विद्र थावत् अवसर को देखता हुआ विचरने लगा। पर पाप छिपाया ना छिपे, छिपे तो मोटो भाग, दाबी दूबी ना रहे, रुई लपेटी आग के अनुसार राजा को गुप्ता चरों के द्वारा पुत्र की कुत्सित इच्छा की जानकारी होगई। बस उसने तुरत अपने अनुभवी वृद्ध अमात्य को बुलाकर पुत्र की आन्तरिक इच्छा को बतलाते हुए अपने हृदय के उद्: गार प्रगट किये कि-मैं पुत्र को राज्य देना नहीं चाहता हूँ ओर अपने जीवन वपुत्र को भी एक दम सुरक्षित रखना चाहता हूँ अतः इस विषय में आप अपनी अगाध बुद्धि से ऐसा सफल उपाय सोंचें कि मेरी अभीष्ट सिद्धि हो सके । मंत्री ने कहा-आप कल एक सार्वजनिक सभा करे और सब के समक्ष यह कहें कि-मैं अब जरा जर्जरित (वृद्ध) होगया हूँ । मैं मेरा राज्य कार्य अपने पुत्र को देकर निवृत्ति पाना चाहता हूँ अतः इस विषय का कोई उचित विधि विधान किया जाय । बस आपके द्वारा इतना कहने पर ऐसा विधान बतलाऊगा आप का राज्य भी आपके हाथ ही में रहेगा और जीवन रक्षण में भी किसी तरह के खतरे विधन की सम्भापना भी न होगी। राजा ने मंत्री के कथनानुसार नगर भर में घोषण करवा दी कि मैं मेरा राज्य पुत्र को देना चाहता हूँ । अतः कल की सभा में सभी नागरिक उचित समय पर सभा स्थान में हाजिर हो जावें। जब-पुत्र राजकुमार ने यह समाचार सुना तो उसको अपने किये हुए विचारों के लिये बहुत ही पश्चाताप होने लगा। वह सोचने लगा कि-अहो ! मेरा पिताश्रीजी तो राज्य का मोहत्याग कर मुझे राज्य देना चाहते हैं और मैं ऐसे कुल कलंक निपजा कि पिता जैसे पूजनीय पिता की विनय भक्ति करने के बदले हनन करने का विचार किया। दूसरे दिन सभा हुई जिसमें नागरिक, ब्राह्मण, मुत्सद्दी, राजकुमार, मन्त्री वगैरह सब लोग एकत्रित हुए । राजा ने उपस्थित प्रजा के सामने कहा कि - मेरी वृद्धावस्था है अतः मैं मेरे पद पर पुत्र को नियुक्त १०८८ मनुष्य जन्म की दुर्लभता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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