SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०८०-११२४ श्रोताओं ने अपना अहोभाग्य समझा । इस तरह सूरिजी का व्याख्यान हमेशा ही होने लगा । आचार्य देव की विचित्र एवं सरस व्याख्यान शैली से चुम्बक की तरह आकर्षित हो क्या जैन और क्या जैनेतर ? क्या राजा क्या प्रजा ? व्याख्यान में स्त्री पुरुषों का ठाठ रहने लगा सूरिजी साहित्य, दर्शन, न्याय, योग आदि अनेक शास्त्रों के अनन्य विद्वान थे अतः कभी दार्शनिक, कभी तात्विक, कभी योग, आसन समाधिस्वरोदय तो कभी आचार व्यवहार कभी साधुत्व जीवन का तो भी गृहस्थाश्रम के आचार विचारों का इस तरह भिन्न २ विषयों का व्याख्यान दिया करते थे । इन सभी विषयों का विवेचन करते हुए 'त्याग, वैराग्य एवं आत्म कल्याण के विषयों का प्रतिपादन करना नहीं भूलते । इन सभी तात्विक, दार्शनिक विवेचनों में वैराग्य की भावनाएं अोतप्रोत रहती थी; कारण उस समय के महात्माओं का जीवन ही दृढ़ वैराग्य मय होता था । अतः श्रापश्री के व्याख्यान पुष्पों की जनानंद कारी सौरभ, जन मण्डली की प्रशंसा वायु से शहर की इस छोर से उस छोर तक विस्तृत होगई थी । आचार्य देव की देशना सौरभ से प्रभावित हो मधुकर की भौति श्रोतावर्ग अपने आप ही सुवास को प्रहण करने के लिये सूरिजी के व्याख्यान का लाभ लेता । क्योंकि यस्य येच गुणाः सन्ति विक सन्त्येव ते स्वयम् । नहि कस्तूरिकामोहः शयथेन निवायते । अस्तु, जन समाज, विशाल संख्या में आचार्यदेव के व्याख्यान को श्रवण कर अपने आपको कृत कृत्य बना रहा था । एक दिन सूरिजी ने खासकर त्याग वैराग्य के विषय का विशद विवेचन करते हुए मानव जीवन की महत्ता एवं प्राप्त अलभ्य मानव देह से धर्माराधन नहीं करने वाले मनुष्यों के मानव जीवन की निरर्थकता का दिग्दर्शन कराते हुए मानव मण्डली को उपदेश दिया कि जो मनुष्य सुर दुर्लभ मानव देह को प्राप्त करके किञ्चत् भी धर्म साधन नहीं करते वे मानों इच्छापूरक कल्पवृक्ष को काट कर धतूरे का वृक्ष बो रहे हैं । एरावत हाथी को बेच कर रासम (गर्दिभ) की खरीदी कर रहे हैं। चिन्तामणि रत्न को फेंक कर कंकरों को जोड़ रहे हैं । कारण मोक्ष रूप लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये भी एक मात्र कर्म भूमि में प्राप्त मानव देह ही समर्थ हैं। धर्म नहीं करने वाले को मनुष्य गति में भी अनेक दुःखों का अनुभव करना पड़ता है-१-माता की कुक्षि में जन्म लेना और उंधा लटकना, संकुचित स्थान में रहना, माता का मल मूत्र शरीर पर से बहना, प्रसूत समय की महावेदना, बाल्यावस्था के अनेक कष्ट, यौवनावस्था जन्य विषय तृष्णा का प्रादुर्भाव होना, उसकी पूर्ति के लिये सैकड़ों कष्टों को सहन कर द्रव्योपार्जन करना और वृद्धावस्था में व्याधियों का घर बन जाना शारीरिक शक्तियों का ह्रास होना, इन्द्रियों की निर्बलता, कुटुम्ब की ओर से अनादर, मृत्यु के समय असह्म अनंत वेदना का अनुभव करने रूप दुःख मय जीवन को व्यतीत करने के पश्चात् पुनः मनुष्य का जन्म मिलना कितना दुर्लभ है ? अतः यकायक प्राप्त हुए अवसर का सदुपयोग करना ही बुद्धिमता है । मनुष्य भव की प्राप्ति के लिये निम्न कारणों की खास आवश्यकता है स्थाहि-प्रकृति का भद्रिकपना, प्रकृति की नम्रता। अमात्सर्य और दया के विशिष्ट परिणामादि अनेक आवश्यक उपादान और निमित कारणों के एकी करण होने के पश्चात् ही हमें कहीं मानव देह की प्राप्ति होना सम्भव है । अतः महानुभावों! अपने हृदय पर हाथ रख कर आप ही सोचें कि उक्त मनुष्य भव योग्य सामग्री के लिये आवश्यक गुणों में से सम्प्रति, आपके पास कितने गुण वर्तमान हैं कि जिससे पुनः मनुष्य भव प्राप्त करने की आशा रक्खी जाय । महानुभावों ! यह अलभ्य मानव योनि बहुत ही कठिनाइयों से प्राप्त हुई है । इसके द्वारा मोक्षाराधना सूरीश्वरजी का व्याख्यान १०८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy