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वि० सं०६८०-७२४ ]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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रमण करवा रहा था। उसने तो अपने माता पिताओं को भी आचार्यदेवका सुना हुआ व्याख्यान पुनः सुनाना प्रारम्भ कर दिया। माता ने कहा पुनड़ ! तेरा व्याख्यान तेरे पास ही रहने दे । हमने तो बड़े २ आचार्यों का व्याख्यान सुना है । पुनड़ ने कहा-बहुत से प्राचार्यों का व्याख्यान सुना होगा यह सत्य है, किन्तु उन व्याख्यानों से लाभ क्या उठाया ? आप स्वयं मुक्त भोगी होने पर भी अात्म कल्याण करना नहीं चाहते हैं
और जो दूसरा उसके लिये उद्यत होता है तो आप स्वयं उसके मार्ग में कंटक रूप-विन भत होजाते हैं। क्या दूसरे के निवृत्ति मार्ग में अन्तराय डालना ही आपके व्याख्यान श्रवण का सच्चा लाभ है ? इस तरह मां बेटे और पिता पुत्र में बहुत प्रश्नोत्तर होते रहे पर पुनड़ तो अपने निश्चय में सुमेरुवत अचल रहा। विवश, हो माता पिताओं को अाखिर दीक्षा की आज्ञा देनी पड़ी। शा. बीजा ने अपने पुत्र की दीक्षा का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया और आचार्यश्री ने भी शुभमुहूर्त और स्थिरलग्न में १६ नर नारियों के साथ पुनड़ को भगवती जैन दीक्षा देकर पुनड़ का नाम मुनि विमल प्रम रख दिया। विमल भ में नाम के अनुरूप ही गुण, तपस्तेज की अलौकिकता बुद्धि की कुशाग्रता, गम्भीरता, क्षमतादि गुण भी वर्तमान थे।
मुनि विमलप्रभ पर प्राचार्यदेव की अनुग्रह पूर्ण कृपादृष्टि थी मुनि विमलप्रभ भी गुरुकुल वास में रह कर विनय, भक्ति, वैयावृत से सूरीश्वरजी को सदा संतुष्ट रखने वाला था। गुरु देव की विनय भक्ति पूर्वक वह आगमों का अध्ययन करने में संलग्न हो गया। मुनि विमलम तो पहले से ही योग्य व बुद्धिमान था ही किन्तु, गुरुकृपा ही ऐसी होती है कि----"पाहण ने पल्लव आणे” अर्थात्-पत्थर पर भी कमल पैदा कर देती है । मूर्ख शिरोमणि को पण्डिताधिराज बना देती है। अस्तु, इधर तो गुरुदेव की कृपा और इधर विनय पूर्ण व्यवहार की अधिकता से मुनि विमलप्पम को थोड़े हा समय में आगम मर्मज्ञ बना दिया।
आगमों के विशिष्ट पाण्डित्य के साथ ही साथ व्याकरण, न्याय, काव्य, तर्क छंद, अलंकार, ज्योतिष, अष्टांग महानिमित्त आदि शास्त्रों की कुशलता - दक्षता को प्राप्त करने में भी किसी प्रकार की कसर नहीं रहने दी। मुनि विमलप्रभ ने अनवरत परिश्रम, कर वर्तमान साल शास्त्रों भाषाओं एवं विद्याओं में निर्मल श्राकाश में शोभायमान षोडश कला से परिपूर्ण कलानिधि के समान पूर्णता प्राप्त करली । १४ वर्ष के गुरुकुल वास में ही वह अनन्य अजोड़ विद्वान हो गया यही कारण है कि आचार्य का कसूरिजीने उपकेशपुर में मुनि विमलप्रभ को सूरि मंत्र की आराधना करवा कर अपने पट्टपर विभूषित किया। सूरि पद महोत्सव में डिडु गौ०शा० नारायण ने सवा लक्ष द्रव्य व्यय किये । पश्चात् आपका नाम परम्परागत क्रमानुसार श्री देवगुप्त सूरि रख दिया ।
आचार्यश्री देवगुप्तसूरि सूर्य के भांति तेजस्वी एवं चंद्र की भांति शीतल व सौम्य गुण युक्त थे । सुरिपद के समय की ३२ वर्ष की वय-जो तरुणावस्था कही जा सकती है-अलौकिक दीप्ति से देदीप्यमान थी अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन की तीव्र आभा व उसमें मिली हुई तपस्वेज की प्रखरता उनके सूरि पद को और भी अधिक शौभायमान कर रही थी। उस समय की आचार्यदेव की प्रभा सहस्त्र रशिधारक प्रभा कर की प्रभा को भी लजित कर रही थी। आपी के उपदेश शैली की सरसता रोचकता जनता की अन्तरात्मा को स्पर्श करने वाली व श्रोताओं के मनको हर्षित करने वाली थी। षट् द्रव्य एवं षट् दर्शन के तो श्राप परम ज्ञाता थे । आपके व्याख्यान में साधारण जनता ही नहीं अपितु बड़े २ राजा महाराजा एवं जैनेतर पण्डित भी उपस्थित होते थे। सब प्राचार्यदेव के व्याख्यान की मुक्तकण्ठ से भूरि २ प्रशंसा करते थे। भाचार्य देवगुप्तसूरि मरुधर में विहार करते हुए और जैन जनता में धर्मप्रेम की नवीन, अलौकिक
मुनि विमलप्रभ की दीक्षा-सूरिपद
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