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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १०८०-११२४
विचित्र क्रान्ति पैदा करते हुए माण्डव्यपुर, शंखपुर, अखिकादुर्ग, खटकूप, मुग्धपुर, नागपुर, कुर्चपुर, मेदिनीपुर, बलीपुर, पाल्हिकापुर नारदपुरी, शिवपुरी, होते हुए चंद्रावती पधारे। सर्व स्थानों पर प्रापश्री का श्रीसंघ द्वारा अच्छा सत्कार हुआ। आपश्री ने भी क्षेत्रानुकूल कुछ २ दिनों की स्थिरता कर धर्म से शिथिल बने हुए व्यक्तियों को पुनः कर्तव्य मार्ग पर आरुढ़ किया । नवीन जैन बनाने के प्रयत्नों में पूर्ण सफलता प्राप्त की । धर्म प्रचारार्थ विचरते हुए अन्य शिष्यों के उत्साह में वृद्धि की । इस तरह धर्म क्रान्ति की चिनगारियां बिखरते हुए जब चंद्रावती में पधारे तो वहां के जन समाज के हर्ष का पारावार नहीं रहा । सबके मुख पर हर्ष की नवीन ज्योति चमकने लगी । श्रीसंघ ने अत्यन्त समारोह पूर्वक श्राचार्यदेव का नगर प्रवेश महोत्सव किया । अन्त में श्रीसंघ के अत्याग्रह से चातुर्मास भी चंद्रावती में ही करने का निश्चय किया। इस चातुर्मास के लम्बेवसर । चन्द्रावती धर्मपुरी बनगई । एक दिन प्राचार्यश्री ने अपने व्याख्यान में शत्रुजय तीर्थ के महात्म्य का व तीर्थयात्रा के लिये निकाले हुए संघ से प्राप्त हुर पुण्य का बहुत ही प्रभावोत्पादक वर्णन किया । अतः प्राग्वट्ट वंशीय शा. रोड़ा ने शब्जय का संघ निकालने के लिये उद्यत हो गया और व्याख्यान में ही चतुर्विध श्रीसंघ से संघ निकालने के लिये आदेश मांगने लगा। संघ ने सहर्ष श्रादेश प्रदान किया और चातुर्मास के बाद श्राचार्यदेव के नेतृत्व और शा. रोड़ा के संघपतित्व में शत्रुन्जय की यात्रा के लिये शुभमुहूर्त में संघ ने प्रस्थान कर दिया । क्रमशः तीर्थयात्रा के अक्षय पुण्य को सम्पादन करके संघ पुनः स्वस्थान लौट आया और सूरीश्वरजी वहां से विहार कर सौराष्ट्र प्रान्त में होते हुए कच्छ में पधार गये । वहां की जनता को जागृत करते हुए क्रमशः आपने सिंच प्रान्त में प्रवेश किया। सिंधधारा में तो आपके श्रागमन के पूर्व भी बहुत से आपश्री के शिष्य धर्म प्रचार कर रहे थे अतः यकायक श्राचार्य श्री के आगमन के शुभ समाचार श्रवण कर तास्थ शिष्य मण्डली के उत्साह एवं हर्ष का पारावार नहीं रहा। वे लोग अपने प्रचार कार्य को और भी उत्साह एवं साहस के साथ सम्पन्न करने लगे।
एक समय सूरिजी महाराज जंगल की उन्नत भूमि पर अपनी शिक्षा मण्डली के साथ विहार करते हुए जारहे थे। मार्ग में एक शेर के साथ एक बकरे दो बड़ो वीरता से सामना करते हुए देखा । इसको देख सूरिजी ने विचार किया कि-यह कैसी वीर भूमि है कि शेर जैसे विकराल, हिंसक पशु के साथ इस भूमि पर बकरा भी सामना करने में किञ्चित भी हिचकिचात्ता नहीं। बस सूरिजी भी वहां पर बैठ कर कुछ समय विश्रान्ति लेने लगे। उसी समय सामने से कुछ घुड़ सवार प्राते हुए दिखाई दिये । वे संख्या में इतने थे कि उनके घोड़ो की रज से सूर्य का तेज भी प्रच्छन्न हो गया था। दिशाएं रज रञ्जित हो गई। उनके पीछे कितने मनुष्य थे इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता था। जब घुड़सवार सूरिजी के नजदीक आये तो मुख्य सवार के मुख पर अलौकिक तेज पुक्ष चमकता हुआ दिखाई दिया । नृपोचित राजतेज ने सूरिजी के हृदय में अपने आप इन भावनाओं का प्रादुर्भाव कर दिया कि ये अवश्य ही किसी प्रान्त के नरेश हैं । इधर उस आचार्यदेव को देख कर अश्व से उतर कर नमस्कार किया : सूरीश्वर जी ने उच्च स्वर से उन्हे अायं शब्द से संबोधन कर धर्मलाभ दिया। सवार को स्थिरता से खड़ा हुआ देख पर सूरजीने धर्मोपदेश सुनने का इच्छुक समझ कर कहा-महानुभाभाव आर्य ! आप कुछ धर्मोपदेशक सुनना चाहते हो । सवार ने कहा-जी हां ! बाद ज्यों ज्यों सवार गाते गये त्यों त्यों मुख्य पुरुष का अनुकरण कर उनके पास बैठते गये इस प्रकार १००० पुरुष सूरिजी के सामने होगये । और सब यथा स्थान बैठ गये।
प्राग्वट वंशीय शाह रोड़ा का संघ
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