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वि० सं० ६८०-७२४ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सूरिजी बड़े ही समयज्ञ थे। उस समय पंजाब में म्लेच्छों का आना जाना एवं आक्रमण वगैरह प्रारम्भ था अतः आचार्यदेव ने अपना धर्मोपदेश मानव जन्म की दुर्लभता से प्रारम्भ करते हुए कहा किमहानुभाव ! इस चक्रवाल रूप संसार में जितने जीव दृष्टि गोचर होते हैं वे सब अपने २ किये हुए पुन्य पाप के फल स्वरूप उनका संवेदन करने के लिये अनेक योनियों में परिभ्रमन करते रहते हैं । इन सब ८४ लक्ष जीव योनियों में एक मनुष्य योनि हो ऐसी है कि जिसमें कुछ आत्म साधन करने योग्य धर्म कार्य किया जा सकता है । मनुष्य योनि में भी दो प्रकार के मनुष्य हैं एक आर्य दूसरा अनाय । इनमें आर्य जातियों के रहन सहन, खान पान, आचार विचार, इष्ट नियम, धर्म, कर्म अच्छे होते हैं। उनमें हिताहित सोचने की बुद्धि होती है वे दयावान होते हैं । बिना अपराध किसी भी जीव को तकलीफ नहीं देते हैं। दुःखी जीवों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं। उदाहरणार्थ- यदुवंसावतंस भगवान् नेमिनाथजी-जो श्रीकृष्ण के लघुभ्राता थे-अपने विवाह के कारण एकत्र किये हुए पशुओं को दुःखी देख उनको दुख मुक्त करने के लिये बिना विवाह किये ही तोरन पर से पुनः लौट गये । वीर क्षत्रियों की दया के विषय में इसके सिवाय भी अनेकोनेक उदाहरण विद्यमान है । तब अनार्य इनसे विपरीत होते हैं । उनके हृदय में दया को जरा भी स्थान नहीं होता धन की तृष्णा में मनुष्य को-मनुष्य नहीं समझते हैं। मनुष्य को क्या पर रोते हुए बच्चों एवं श्रानंदन करती हुई औरतें जो हिन्दुओं के लिये शास्त्र दृष्टि से अवद्ध्य कहे गये हैं। यवन निर्दयता से बिना किसी संकोच के मार डालते हैं उनके सतीत्व को लूट लेते हैं अस्तु, म्लेच्छों जैसा मनुष्यत्व प्राप्त करना तो पशुओं से भी हलके दर्जे का है । अर्थात् - उन अनार्य पुरुषों की अपेक्षा तो पशु भी अच्छे है कि जिनके हृदय में कुछ दया होती है ।
अनार्य का नाम सुनते ही सवार का चेहरा तमतमा गया। उसके भुख पर क्षत्रियोचित स्वभाविक श्रावेश के भाव दृष्टगोचर होने लगे। उसमें कुछ वीरत्व उमड़ आया। निर्दय अनार्यों के प्रति एक घृणा एवं द्वेष की स्पष्ट मल क, झलकने लगी। म्लेच्छों की निष्ठुरता उसके नैनों के सामने प्रति बिम्बित होगई। यह व्याख्यानों के बीच में ही आवेश में बोल उठा-गुरुदेव ! श्रापका फरमाना सर्वथा सत्य है अनार्य निर्दय निष्ठुर, कूर, पापी, विश्वासघाती, स्त्रियों के सतीत्व के हर्ता ही होते हैं। मनुष्य कहलाते हुए भी मानवीय कर्तव्यों से पराङ्मुख अधर्म के कर्ता होते हैं। महात्मन् ! उनकी उसी निर्दयता के कारण हम लोग इधर उधर भटक रहे हैं। हम पंजाब से आये और आत्मरक्षा के लिये आगे बढ़ रहे हैं। प्रभो! हमारा भविष्य में क्या होगा ? आप महात्मा हैं अतः आशीर्वाद दें जिससेकि हम सुखी बनें । इस तरह वह सूरीश्वरजी की सेवा में आपने मनोगत भावों का वर्णन एवं आशीर्वाद की प्रार्थना करने लगा।
तत्क्षण ही पास में बैठे हुए दूसरे आदमियों ने मुख्य सवार का परिचय कराते हुए कहा कि-महास्मन ! ये यदुवंशी राव गोशल हैं और म्लेच्छों के भय से हम सब इधर आये हैं। हमारा अहोभाग्य है। कि आप जैसे महात्माओं के दर्शन हो गये । महात्माओं के लिये पलक दरियाव है। महात्मा रेख पर मेख मार सकते हैं। अतः श्राप आशीर्वाद दीजिये कि सब तरह का आनंद मंगल हो जाय । विघ्न की शाँति हो माय अर्थात् विघ्न शांति हो दुःख सुख में परिवर्तित हो जाय ।।
सूरिजी-आप घबराते क्यों हो ? धर्म के प्रभाव से सब अच्छा ही होगा आर्य तो आर्य ही रहेंगे। राजा राज्य ही करेंगे । महानुभावों ! आप तो शुद्ध सनातन अहिंसामय धर्म की शरण लो ! धर्म एक ऐसी
राव गोशल को धर्मोपदेश Jain Education International
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