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वि० सं० ६५२-१०११]
। भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
उन्हें संकल्प विकल्प जन्य नाना तरह का परिताप होता है पर दूसरे ही दिन इस प्रकार की सुख साहिबी का त्याग कर दीक्षा अङ्गीकार करके अनेक कष्टों को सहन करते हुए भी उन्हें आत्मिकानन्द का वास्तविक अनुभव होता है। पुण्यवंत योग्य सख शैया पर शयन करने वाले चक्रवर्तियों को पशुओं के ठहरने योग्य कण्टकाकीर्ण स्थान में भी पारमार्थिक सौख्य का मान होता है । वास्तव में परिणामों की उत्कर्षापकर्षता का तारतम्य ही जीवन में सुख दुःख का उत्पादक है। उसी जीव और शरीर के एक होने पर भी विचार श्रेणी की निम्नोन्नतावस्था जीवन की वास्तविक कार्य को विचारों की निम्नोच्चतानुसार परिवति एवं परिवर्तित कर देती है। इस प्रकार वह भावनाओं में बढ़ता ही गया।
मोइन का वयक्रम अभीतक १८ वर्ष का ही था फिर भी उसका दिल संसार से एक दम विरक्त हो गया । जब क्रमशः श्रीसंव सम्नेत शिखर तीर्थ के पवित्र स्थान पर पहुंचा तब मोहन ने अपने माता पिता से स्पष्ट शब्दों में कहा-पूज्यवर ! मेरी इच्छा श्रावार्यश्री के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करने को है। वज्र प्रकारवत् पुत्र के दारुण शब्दों को सुनकर माता पिताओं के आश्चर्य व दुःख का पार नहीं रहा । माता सोनी ने मोहन के विचारों को अन्यथा करने का प्रयत्न किया पर मोहन के अचल निश्चय को अनुकूल प्रतिकूल अनेक आशाजनक उपायों से भी चलायमान करने में माता सोनी समर्थ नहीं हुई । आखिर मोहन को दीक्षा का आदेश देना ही पड़ा। मोहन ने भी अपने कई साथियों के साथ बीस तीर्थक्करों की निर्वाण भूमि पर बड़े ही समारोह-महोत्सव पूर्वक आचार्यश्री के हाथों से दीक्षा स्वीकार की। सूरीश्वरजी ने भी २३ नर नारियों को दीक्षा दे मोहन का नाम मुनिसुन्दर रख दिया। मुनि-मुनिसुन्दर ने २४ वर्ष पर्यन्त गुरुकुल में रह कर जैनागम-न्याय-व्याकरण-काव्य-साहित्य-ज्योतिष-तर्क-अलङ्कार-गणित-मंत्र यंत्रादि अनेक विद्याओं एवं सामयिक साहित्य का अध्ययन कर लिया। आचार्यश्री ने भी मुनि मुनिसुन्दर को सर्वगुण सम्पन्न जानकर वि० सं० ६५२ में नागपुर में चोरलिया गौत्रीय शाह मलूक के महा महोत्सवपूर्वक आदिनाथ भगवान के चैत्य में चतुर्विध श्री संघ की मौजूदगी में सूरि पद दे दिया। आचार्य पदवी के साथ ही परम्परानुसार आपका नाम ककसूरि रख दिया गया।
__ आचार्यश्री ककसूरिश्वरजी महाराज महा प्रभाविक आचार्य हुए । आपश्री जैसे आगमों के ज्ञाता थे वैर मंत्र यंत्र विद्याओं में भी सिद्धहस्त थे। एक बार आप पांचसौ साधुओं के साथ विहार करते हुए सौराष्ट्र प्रा त में पधारे । क्रमशः सौराष्ट्र प्रान्तान्तर्गत तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय की पवित्र यात्रा करनेके पश्चात सौराष्ट्र प्रान्त में परिभ्रमण कर धर्म प्रचार करते हुए आपश्री ने कच्छ प्रदेश को पावन किया। जब आपश्री अपनी शिष्य मण्डली के सहित भद्रेश्वर में पधारे तब कच्छ प्रान्तीय आपके आज्ञानुयायी अन्य श्रमण वर्ग शीघ्र ही आचार्यश्री के दर्शनों के लिये भद्रेश्वर नगर में उपस्थित हुए । आगत श्रमण समुदाय को उचित सम्मान से सम्मानित कर आचार्यश्री ने उनके धर्म प्रचार के श्लाघनीय कार्य पर प्रसन्नता प्रगट की। उनका समुचित स्वागत करते हुए योग्य मुनियों को यथायोग्य पदवियां भी प्रदान की। ऐसा करने से मुनियों को अपने पदों के उत्तरदायित्व का स्मरण हुआ और वे पूर्वापेक्षा भी अधिक उत्साह पूर्वक धर्म प्रचार के कटिबद्ध हो गये । एक चातुर्मास कच्छ प्रान्त में कर आपश्री ने सिन्धान्त की ओर पदार्पण किया। सिन्ध प्रान्त में जैसे उपकेशवंशीय श्रावकों की संख्या अधिक थी वैसे आचार्यश्री के आज्ञानुवर्ती श्रमण समुदाय की संख्या भी विशाल थी। पातोली, वीरपुर, उच्चकोट, मारोटकोट, डामरेल, जजोकी, तीतरपुर वगैरह ग्राम नगरों में विहार करते हुए सूरिजी ने डामरेल में चातुर्मास कर दिया। आपश्री के डामरेल के चातुर्मास में धर्म की पर्याप्त प्रभावना हुई । चातुर्मास के पश्चात् आपश्री ने विहार कर अपनी जननी जन्मभूमि गोसलपुर की
ओर पदार्पण किया । आपश्री के पधारने से गोसलपुर निवासियों के हृदय में धर्म स्नेह उमड़ पाया। एक माई का सुपुत्र जिस नगर में जन्मधारण कर अपने कुल गौत्र के साथ ही साथ अपनी जन्म भूमि को भी १३७२
मुनि मुनि-सुन्दर का सूरिपङ
कार्य में
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