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________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८ - १२३७ कालान्तर में सूरिजी की करिता में शृंगार रसके आधिक्य को देख कर राजा के दिल में पुनः कुछ मलीनता पैदा हो गई और उसने सूरिजी की ओर पूर्वापेक्षा कुछ उपेक्षा वृत्ति धारण कर ली। राजा की इस अविवेक पूर्ण स्थिति को देख बिना किसी को कहे सूरिजी ने भी बिहार कर दिया । जब निर्दिष्ट समय के अतिक्रमण होने पर भी सूरिजी राज सभा में नहीं आये तो राजा ने तरक्षण उनकी खबर मंगवाई पर कुछ भी उनको पता न लग सका । सूरिजी ने जाते हुए नगर के द्वार पर एक काव्य लिखा था जिसके आधार पर यह अनुमान किया गया था कि वे विहार करके अन्यत्र चले गये हैं । काव्य निम्न थायामः स्वस्तितवास्तु रोहयगिरे मत्त स्थिति प्रच्युता । वर्तिष्यन्त इमेकथं कथमिति स्वप्नेऽपि मैं कृथाः ॥ श्रीमँस्ते मरणयो वयं यदि भवच्छ प्रतिष्ठास्तदा । ते शृङ्गारपरायणाः क्षितिभुजो मौलौ करिष्यन्ति नः ।। " थीत् - इम तो जाते हैं पर रोहणाचल पर्वत के समान हे राजन् ! ते कल्याण हो । ये गेरे से विलग हुए कैसे अपनी तथावत् स्थिति रख सकेंगे ? इसका स्वप्न में भी विचार मत कर । मणि रूप हमने जो तेरे सहबास से प्रतिष्ठा प्राप्त की है तो शृंगार परायण राजा हमको मस्तक पर धारण करेंगे ! इधर सूरिजी विहार करते हुए गौड़देश की लक्ष्मणावती नगरी में पधार गये वहां वाक्पतिराज नामक विद्वान से उनकी भेंट हुई। उसने सूरिजी को परगयोग्य जान करके उस नगरी के राजा धर्म से उनका परिचय करवाया। इस पर राजा धर्म ने कहा कि मेरी ओर से सूरिजी से यह प्रार्थना है कि जब तक राजा श्राम खुद आपकी विनती करने को यहां न आवे तब तक आप किसी भी हालत में कन्नौज नहीं पधारे। इसका दूसरा कारण यह भी था कि कन्नौज के राजा आम और लक्ष्मणावती नरेश धर्म के किसी एक बात के कारण परसर वैमनस्य था अतः राजा धर्म सूरिजी को सम्मान पूर्वक अपने राज्य में रक्खे और आमराजा के बुलाने पर सूरिजी सहसा कन्नौज चले जायं इसमें धर्मराज अपना अपमान समझता था, खैर ! पं० वावपतिराजा ने जाकर सूरिजी से राजा कथित सब वृतान्त निवेदन किया जिसको सूरिजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर तो था ही क्या ? राजाधर्म ने सूरिजी का बहुत सत्कार पूर्वक नगर प्रवेश करवाया सूरिजी ने भी राजादि को राज सभा में हमेशा धर्मोपदेश देकर धर्म की ओर प्रभावित करते रहे । आचार्यश्री का पता न लगने से राजाश्राम बहुत ही विलाप करने लगा । एक दिन बाहिर बगीचे में जाते हुए राजा ने नकुल के द्वारा मारे हुए एक भयंकर सर्प को देखा । वराबर निरीक्षण करते हुए सर्प के मस्तक में एक मणि दृष्टि गोचर हुई । निर्भीकता पूर्वक मुख दबा कर मणि लेकर राजा स्वस्थान आया और विद्वानों के समक्ष एक श्लोक का पूर्वार्द्ध बोला 1 'शस्त्र शास्त्र कृषिविद्या अन्यो यो येन जीवति' " अर्थात् शस्त्र, शास्त्र, कृषि और विद्या तथा अन्य जो जिसके आधार पर जी सके" राजा के इस पूर्वार्द्ध की मनोनुकूल पूर्ति राज सभा के पण्डितों में से कोई भी नहीं कर सका तब राजा को पट्टसूर की विद्वत्ता का स्मरण हो आया । वह विचारने लगा -- चन्द्र के समक्ष खद्योत व हाथी के समक्ष गर्दभ के समान बप्पभट्टिसूरि के समक्ष ये परिहत हैं । बस, राजा ने घोषणा करवादी कि जो मेरे अभिप्रायपूर्वक इस समस्या की पूर्ति करेगा वह एकलक्ष स्वर्णमुद्रा प्राप्ति का अधिकारी होगा । उक्त घोषणा को सुनकर बप्पभट्टिसूरि का पता लगा कर एक जुआरी श्लोकार्द्ध के साथ लक्ष्मणावती नगरी को सूरीश्वरजी और राज धर्मपाल Jain Education International For Private & Personal Use Only १२०७ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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