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________________ वि० सं० ७७८-८३७ । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हुआ। मुनिश्री के स्वागत के लिये बड़ी २ तैय्यारियां करने लगा । जिसके राज्य में १४०० हस्ति १४०० रथ २००००० अश्व और करोड़ों की संख्या में पैदल सिपाही हों वहां स्वागत समारोह के विषय में कहना ही क्या ? उत्साहित नागरिकों के साथ राजा, बप्पट्टि मुनि के सम्मुख गया और विनय पूर्व नमस्कार कर हस्ति पर आरूढ़ होने के लिये प्रार्थना की । इस पर मुनिजी ने कहा हे राजन् ! संसार त्यागियों के लिये गज सबारी करना उचित नहीं है। इस पर राजाने कहा हे महामतिबन्त ! मैंने पूर्व अापके सम्मुख प्रतिज्ञा की थी कि मुझे राज्य मिलेगा तो मैं आपको अर्पण कर दूंगा । जब रजा का मुख्य चिन्ह इस्ति होता है तो आपको इस पर सवारी कर मेरे मनोरथ को पूर्ण करना चाहिये । इस पर मुनिजी ने बहुत ही आना. कानी की पर राजा ने भक्ति बसात् ' हस्ति पर बैठा ही दिया और कोटिसंख्यक माना मेदिनी के बीच सूरिजी का नगर प्रवेशोत्सव करवाया। उस समय का दृश्य ऐसा मालूम होता था कि मानो मोह शत्रु का पराजय करने के लिये एक महान् पराक्रमी योद्धा छत्र एवं चार चंवरों की फटकारों से उत्साह पूर्वक समराङ्गण में जा रहा हो । जब निदिष्ट स्थान पर पहुँचने के पश्चात् राजसभा में मुनिजी पधारे तब राजा ने मुनि बप्पभट्टि को सिंहासन पर बैठने के लिये आमन्त्रित भिया । मुनिजी ने कहा-जब तक मैं आचार्य नहीं बनू तब तक सिंहासन पर बैठ नहीं सकता हूँ । इस पर राजा ने अपने प्रमुख पुरुषों को मुनिश्री के साथ गुर्जर प्रान्त में भेजे और आचार्यसिद्धसेनसूरि को विज्ञप्ति कर मुनि बप्पभट्टि को वि० सं० ८११ के चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन सूरिपद दिलवाया। सूरिपद अर्पण करते साय सूरिजी ने उपदेश देते हुए कहाबप्पभट्टि ! मैंने तुमको योग्य समझ कर सूरिपद् दिया परन्तु एक तो जवानी दूसरा राज-सन्मान; इससे संयम व्रत की यथावत् रक्षा करते रहना तेरा प्रमुख कर्तव्य है, इस पर बप्पभट्टि ने कहा-मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि भक्त जनों के वहां से कोई भी विगय नहीं लूंगा और आपश्री की शिक्षा को हरदम याद रक्खूगा । सूरिपद् प्राप्त्यनन्तर बप्पभट्टिसूरि ने पुनः कन्नौज में पदार्पण किया । राजाने पुनः गज सवारी और महामहोत्सव पूर्वक नगर प्रवेश करवाया और अपने राजप्रासाद में लेजाकर सिंहासन के ऊपर बिठलाया। ___आचार्य बप्पभट्टिसूरि राजा आम को हमेशा धर्मोपदेश देते रहे । फल स्वरूप मजा आम ने कन्नौज नगर में १०१ हाथ ऊंचा जिनमन्दिर बनवा कर अठारह भार ६ स्वर्ण की प्रतिमा करवाई। प्राचार्य बप्पभट्टिसूरि के हाथों से प्रतिष्ठा करवाकर शुभमुहूर्त में प्रतिमा की स्थापना की। इसके सिवाय ग्वालियर नगर में २३ हाश ऊंचा मन्दिर बनवा कर लेपमय प्रतिमाजी की प्रतिष्ठा करवाई। कहा जाता है कि इस चैत्य के एक मण्डप में एक करोड़ (लक्ष) द्रव्य व्यय हुआ। इस प्रकार प्रामराजा के राज्य में सूरिजी का बढ़ता हुआ प्रभाव देख कर के जैन समाज के श्रानन्द एवं उत्साह का पार नहीं रहा पर विप्र समुदाय को उतनी उद्विग्नता स्पर्धा एवं ईर्ष्या हुई जितना जिनधर्मानुपायायों को हर्ष । बस इर्ष्याग्नि से प्रज्वलित ब्राह्मण वर्ग अपनी ओर से कब कमी रखने वाले थे, उन्होंने येनकेनप्रकारेण राजा का कान भरना शुरु किया जिससे राजा को सूरिजी के प्रति कुछ उदासीनता हो गई। राजा ने अपनी ओर से उनके सन्मान में कमी करदी जिससे स्वर्ण सिंहासन के बजाय साधारण आसन देना प्रारम्भ कर दिया । विचक्षण सूरिजी ने जान लिया कि सब इर्ष्यालु ब्राह्मणों की असहिष्णुता का ही परिणाम है अतः उन्होंने राजा आम को इस प्रकार जोरदार शब्दों में समझाया कि राजा ने अपनी भूल स्वीकार कर सूरिजी का पुनः तथा वत् सन्मान करना प्रारम्भ कर दिया। १२०६ मुनि बप्पट्टि गज सवार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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