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________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७१०-७३६ और उनका सामान भी छीन लिया । अतः राजा ने धरण की वीरता देख ७ प्राम उनको विजय के उपलक्ष में इनायत कर दिये। अब तो धरण सात प्राम का जागीरदार बन गया और अपनी हुकूमत चलाने लगा। धरण की तृष्णा इतने से शांत नहीं हुई फिर भी उसका संकल्प था वह सफल हो ही गया। इधर धर्मधुरंधर धर्मचक्रवर्ती एवं धर्मप्राण आचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी अपने विद्वान शिष्यों के परिवार से जनकल्याण करते हुये वीरपुर नगर की ओर पधार रहे थे। शाह गोसल आदि को खबर होते ही उनके हर्ष का पार नहीं रहा । सूरिजी महाराज का सुन्दर स्वागत किया और गोसल ने धरण को भी खबर दे दी कि वह भी सूरिजी की सेवा में हाजिर हुआ । सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा होता था । वहां का राजा कोक भी सूरिजर्जा के व्याख्यान सुनने से सूरिजी का परम भक्त बन गया। एक दिन सूरिजी ने मनुष्य जन्म की दुर्लभता पर इस कदर व्याख्यान दिया कि यह मनुष्य जन्म चिन्तामणि रत्नतुल्य मिला है इसको जैसे किसान काग उड़ाने में रत्न फेंक देता है और मालूम होने पर पश्चाताप करता है इसी प्रकार लोग इस मनुष्य भव की कीमत को न समझ कर व्यर्थ ही गंवा देते हैं और पीछे पश्चाताप करते हैं। प्यारे बन्धुओ! लोहे से सोना बनाने की रसायन मिलना सुलभ है पर गंवाया हुश्रा नरावतार पुनः प्राप्त होना बड़ा ही दुर्लभ है। मनुष्य चाहे तो घर में रह कर भी इसको सार्थक बना सकता है पर घर में रहने से कई उपाधियां एवं झमटें पीछे लग जाती हैं कि वह इच्छा के होते हुये भी आत्म कल्याण नहीं कर सकता है । इत्यादि ज्यों ज्यों सूरिजी बातें कहते गये क्यों २ गजा और धरण के गले उतरती गई उन्होंने सोच लिया कि सूरिजी फरमाते हैं वह सोलह आना सत्य है और यह सब बातें हम खुद अनुभव कर रहे हैं। मनुष्य की दृष्टि सम हो जाती है फिर उनको ज्यादा उपदेश की जरूरत नहीं रहती है । जब सूरिजी का व्याख्यान समाप्त हुआ तब सब लोग अपने २ स्थान जाने लगे तो राजा धरण को अपने राज में ले गये और दोनों बैठ कर बातें करने लगे। राजा ने कहा धरण आज के व्याख्यान में सूरिजी ने कहा वह बात सत्य है । धरण ने कहा हां, दरबार मेरे भी यही जंचती है। राजा ने कहा फिर करना क्या है ? केवल जचने से ही क्या होता है । धरण ने कहा दरबार मेरी इच्छा तो बहुत है पर थोड़ी सी तृष्णा आड़ी श्रा रही है वरना मैं तो सूरिजी के हाथों से दीक्षा ले अपना कल्याण कर सकता हूँ। राजा ने कहा मैं जानता हूँ तेरे तृष्णा राज की है। ले मैं अपना राज तुमको दे देता हूँ बोल फिर क्या है ? धरण ने कहा हुजूर मैं जानता हूँ कि राजेश्वरी नरकेश्वरी होता है । खैर, दोपहर को सूरिजी के पास चलेंगे। इतना कह कर धरण तो अपने मकान पर श्रा गया। पीछे राजा ने विचार किया कि ये राज तो अस्थिर है या तो राज मुझे छोड़ जायगा या राज को मैं छोड़ जाउंगा इसलिये कुछ भी हो मुझे तो आत्म कल्याण करना है। इस प्रकार राजा ने दृढ़ संकल्प कर लिया। दोपहर को धरण के साथ राजा सूरिजी के पास गये और अपने मनोगत भाव सूरिजी की सेवा में निवेदन कर दिये । बस, फिर तो कहना ही क्या था सूरिजी जैसे चतुर दुकानदार भला आये हुये ग्राहक को कैसे जाने देने वाले थे। सूरिजी ने कहा राजन् ! आपका तो क्या राज है पर चारित्र के सामने छः खंड के राज की भी कुछ कीमत नहीं है। उन चक्रवर्तियों ने भी राज ऋद्धि पर लात मार के चारित्र की शरण ली थी। आयुष्य सरिजी का उपदेश और रैराग्य ] ७५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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