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वि० सं० ५२०–५५८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
भी की पण्डितजी ने कहा-नरेश ! हम शास्त्रार्थ करने को तैय्यार हैं पर याद रहे कि वाद का विषय धर्म से सम्बन्ध रखने वाला हो कारण इससे उभयपक्ष को तत्व निर्णय ही का समय मिलता है और सब तरह से हितावही सिद्ध होता है । राजा ने कहा- ठीक है, मैं जाकर उनसे निर्णय कर लूँगा। राजा वहाँ से उठकर वादी के यहां आया और कहने लगा-यहां पर वाद करने बाले पण्डितजी तैयार हैं, पर वे, शुष्कवाद न करके धार्मिक वाद की करेंगे। वादी ने पहिले तो कुछ आनाकानी की पर आखिर उन्होंने धर्मवाद करना स्वीकार कर लिया। इस शास्त्रार्थ निर्णय के लिये कई योग्य पुरुषों को मध्यस्थ मुकर्रर किये गये ।
राजा ने दोनों ओर सम्मान पूर्वक आमन्त्रण पत्र भेज दिया । इधर वादी, प्रतिवादी, के आने के पूर्व ही नागरिकों एवं दर्शकों से सभा खचाखच भर गई कारण, जनता को वादियों की विद्वत्ता एवं वाद विवाद की कुशलता देखने की पूर्ण उत्कण्ठा थी।
इधर तो पं० वीरकुशल, गज कुशल अपने शिष्यों एवं भक्तों के साथ और उधर वादी ने अपने आडम्बर के साथ राज सभा में प्रवेश किया और पूर्व निर्दिष्ट स्थानों पर अपने २ श्रासन लगाकर बैठ गये ।
वादी ने मंगलाचरण में ही शुष्कवाद करना प्रारम्भ किया, इस पर पं० राजकुशल ने कहा-ऐसे शुष्कवाद से आपका क्या प्रयोजन और क्या लाभ सिद्ध होने वाला है ? वाद ऐसा कीजिये जिससे जनता को तत्त्ववाद का ज्ञान हो एवं सब ओर से लाभ पहुँचे । अतः शास्त्रार्थ में इस विषय की चर्चा की जाय कि आत्मा से परमात्मा कैसे हो सकते हैं ?
वादी ने कहा-आत्मा है या नहीं हम इस विषय का शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते हैं हम तो केवल चमस्कार वाद ही करना चाहते हैं । या तो आप इसको स्वीकार करो या अपनी पराजय मान लो ।
पं० राजकुशल ने कहा कि हम पहिले ही बता चुके हैं कि धार्मिक विषय के विवाद से जन समाज सत्य धर्म की ओर प्रवृत्त होता है जिससे जनता का कल्याण और धर्म का मान बढ़ता है। इन्द्रजालियों की भांति भौतिक चमत्कार बतला कर जनता को खुश करना उनसे मानपत्र लेना या कौतुक बता कर द्रव्य एकत्रित करना, इनमें आत्मिक क्या लाभ है ?
वादी-यह तो आपकी कमजोरी है। मालूम होता है आप जनता के लिये भारभूत ही हैं, यदि ऐसा ही है तो आप स्पष्ट शब्दों में क्यों नहीं कह देते हो कि हम वाद विवाद करने को तैय्यार नहीं है। शायद आप अपनी पराजय स्वीकार करने में शरमाते हैं ।
पं० राजकुशल-हम कमजोर नहीं हैं, हमारे पास सब कुछ है पर हमें आप पर दया पाती है । कारण, आज तक छल, प्रपञ्च द्वारा जनता को धोखा देकर जिस द्रव्य को लूटा है व भौतिक चमत्कारों से जो प्रतिष्ठा प्राप्त की है, उस श्राजीविका का भंग हो जाने से कहीं दुःखी न हो लामो इसका हमें भय है ।
वादी ने कहा-ऐसा वितण्डावाद करना विद्वानों के लिये उचित नहीं है। यह तो केवल धर्म की भाड़ में भद्रिक जनता को अपनी जाल में फंसाने का एक मात्र सरल उपाय है। हम तो दावे के साथ कहते हैं कि न तो आत्मा है और न श्रात्मा से परमास्मा ही बनता है। दूसरी बात, इस विय के विषवाद से जनता को लाभ ही क्या है ? यह तो भिन्न भिन्न मत वालों ने अपनी २ दुकानदारी जमाने के लिये शास्त्रार्थ की चर्चा ]
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