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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ९२०-९५८
भिन्न भिन्न कल्पना कर डाली है। यदि आपके अन्दर थोड़ी भी योग्यता हो तो जनता के सामने कुछ चमत्कार बतलाइये |
पं० राजकुशल ने कहा- बड़ा ही अफसोस है कि आप जैसे विद्वानों की ऐसी मान्यता किन आत्मा है और न श्रात्मा से परमात्मा ही बनता है फिर आत्मा को स्वीकार किये बिना चमत्कार की आशा रखना आकाश कुसुम वत ही समझना चाहिये । कारण 'मूलं नास्ति कुतः शाखा' चमत्कार आत्मा से पेदा होता है, जब आत्मा ही नहीं तो चमत्कार कैसे हो सकता है ? महात्माजी ! या तो आपको आत्मा के विषय में पर्याप्त ज्ञान नहीं है या जान बूझ कर धोखा खा रहे हैं। यदि ऐसे शब्द किसी मूर्ख एवं अज्ञानी के मुंह से निकल जाते तो क्षतव्य थे पर आप जैसे विजयाकांक्षी विद्वानों के मुंह से ऐसे शब्द शोभा नहीं देते हैं । इस प्रकार पण्डितजी के निडरता पूर्वक वचनों को सुनकर सब लोग पण्डितजी के सामने टकटकी लगाकर देखने लगे । इतना ही क्या ? वादी स्वयं विचार सागर में निर्मग्न हो गया । शायद वादी के लिये यह एक भीषण समस्या बन गई होगी कि इसका क्या उत्तर दिया जाय ?
कुछ समय के पश्चात् मौन ल्याग कर वादी ने कहा- मुझे दुःख इस बात का है कि स्वयं विवाद के लिये अयोग्य होते हुए भी दूसरों की मीमांसा करने जा रहे हैं। महात्माजी ! केवल वाग्युद्ध से ही मनुष्य को विजय नहीं मिलती है पर संसार में कुछ करके बतलाने से ही दुनियां को विश्वास होता है । यदि आप में कुछ योग्यता हो तो लीजिये मैं वाद का प्रथम प्रयोग करता हूँ । आप इसका प्रतिकार कीजिये | ऐसा कहकर वादी ने सभा में जितना अवकाश था उतने स्थान पर बिच्छुओं का ढेर कर दिया । इसको देखकर सभा आश्चर्य के साथ भय भ्रान्त हो गई ।
पण्डितजी ने अपनी विद्या से मयूर बनाये कि बिच्छू को पकड़ २ कर आकाश में ले गये जिसको देख बादी को कोप हुआ उसने सर्प बनाये पण्डितजी ने नकुल बनाये कि सर्पों का संहार कर दिया । बादी मूषक बनाये पण्डितजी ने मंझार बनाये । बादी ने व्याघ्र बनाये पण्डितजी ने सिंह बनाये इत्यादि बादी जिसने प्रयोग किये पण्डितजी ने उन सब का प्रतिकार कर दिया जिसको देख वादी का मान गल गया और राजा प्रजा को गुरुमहाराज के लिये बड़ी खुशी हुई कि हमारे देश में एवं हमारे धर्म में ऐसे-ऐसे विद्वान विद्यमान हैं कि विदेशी वादियों का पराजय कर सकते हैं ।
बस ! सभा का समय आ गया पण्डितजी की विजय घोषणा के साथ सभा विसर्जन हुई । बादी के दिल में कुच्छ भी हो पर ऊपर से पण्डितजी का सत्कार करने के लिये पण्डितजी के उपाश्रय तक पहुँचाने को गया पण्डित वीरकुशल ने वादी का सत्कार किया और साथ में श्रात्म कल्याण के लिये उपदेश भी दिया कि इस प्रकार की विद्याओं से जन मन रंजन के अलावा कुच्छ भी लाभ नहीं है यदि जितना परिश्रम इन कार्यों में किया जाता है उतना आत्म कल्याण के लिये किया जाय तो जीव सदैव के लिये पूर्ण सुखी बन जाता है इत्यादि । बादी कई अर्सा तक रेणुकोट में ठहर कर पण्डितजी के पास से आत्मीय ज्ञान हाँसिल कर आखिर अपने छात्रों के साथ पण्डितजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्ष स्वीकार कर ली जिसका नाम सत्यकुशल रखा तदानन्तर पण्डितजी को लेकर महाराष्ट्रीय प्रान्त में गये
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[ शास्त्रार्थ में पंडितजी की विजय
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