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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-६५८ सूरि रखा गया तत्पश्चात् सूरिजी ने सलेखना एवं अनशन व्रत धारण कर लिया और वि० सं० ५५८ की भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन नाशवान शरीर का त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया सूरिजी के स्वर्गबास से उपकेशपुर में सर्वत्र शोक के काले बादल छा गये थे श्रीसंघ निरानन्द हो गया था वहुल्ला की ओर से सूरिजी के शरीर को विमान में बैठा कर शानदार जुलूस निकाला तथा केवल चन्दन एवं अगर तगर के काष्ठ से आग्निसंस्कार किया और उच्छला वगैरह में पांचलक्ष द्रव्य व्यय किया था सूरिजी के शरीर के अग्नि संस्कार के समय सर्वत्र केशर की बरसात हुई और जलती हुई चिता पर पंच वर्णं के पुष्पों की वर्षा भी हुई थी देवी सच्चायिका द्वारा श्रीसंघ को यह भी ज्ञात हो गया कि सूरीश्वरजी का जी सौधर्म देवलोक में महाऋद्धिवान् दो सागरोपम की स्थिति वाला देवता हुआ है। जब आचार्य श्री के मृत शरीर का अग्नि संस्कार कर सकल श्रीसंघ श्राचार्य कक्कसूरि के पास आये उस समय आचार्य कक्कसूरि बड़े ही उदासावस्था में बैठे हुए थे कि उनको संघके आने की खबर तक न रही। साधु यद्यपि निरागी एवं निस्नेही होते हैं पर छदमस्थों का स्वभाव होता है कि वे गुरु विरह को सहन नहीं करते हैं मुनि सिंहा को महावीर के बीमारी की खबर मिलते ही वह रोने लग गया गौतम स्वामी को महावीर निर्वाण समय कई प्रकार के विलापात करना पड़ा कालकाचार्य; साध्वी सरस्वती के कारण पागल से बन गये प्रकार आचार्य ककसूरि का अपने गुरु के विरह से उदासीन बन जाना स्वभाविक ही था पहले तो श्रीसंघ आचार्य ककसूर को कहा गुरु महाराज श्राज हम शासन का एक जगमगाता सितारा खो बैठे हैं जिसका महान् दुःख है और वही दुःख आपको भी है परन्तु यह बात निजोर है इसमें किसी की भी चल नहीं सकती है तीर्थंकर महावीर और आचार्य रत्नप्रभसूरि जैसे महापुरुष भी चले गये काल ऐसा निर्दय है कि इसको किसी की भी दया नहीं आती है इत्यादि श्रीसंघ के शब्द सुन सूरिजी सावधान होकर श्रीसंघ को धैर्य एवं शान्ति का उपदेश देकर अन्त में मंगलीक सुनाया और संघ उदास अपने अपने स्थान पर चला गया । आचार्य सूरीश्वरजी महारान के शासन में एक निधानकुशल नामक प्रभाविक उपाध्याय थे श्राचार्य देवगुप्त सूरि ने आपको उपाध्याय पदार्पण किया था आपके शिष्य समुदाय में वीरकुशल और राजकुशल नाम के दो धुरंधर विद्वान और विद्याबली मुनिथे आपकी योग्यता पर मुग्ध होकर श्राचार्य सिद्धसूरिने श्राप दोनों को पण्डित पद से भूषित किये थे श्रापका विहार क्षेत्र प्रायः सिन्ध भूमि था इस प्रांत में आपका जबर्दस्त प्रभाव भी था क्या राजा और क्या प्रजा आपको अपना गुरु मान कर अच्छा सत्कार किया करते थे बात भी ठीक है चमत्कार को सर्वत्र नमस्कार हुआ ही करता है । इन युगल मुनिवरों ने सिन्ध धरा में भ्रमन कर अनेक मांस मदिरा सेवियों को उपदेश एवं चमत्कारों से जैन धर्म के उपासक बना कर जैनों की संख्या में वृद्धि की । जिस समय पण्डितजी रेणुकोट नगर में विराजते थे उस समय महाराष्ट्र प्रान्त का वादी कुन्जर केसरी विरुद धारक एक वादी विजय पताका के चिन्ह को लेकर सिन्ध धरा में पहुँचा और घूमता घूमता रेणुकोट में आया उसके साथ में खास आडम्बर भी था राजा ने आपका अच्छा स्वागत किया । वादी ने राजा से कहा कि आपके नगर में यदि कोई बादी हो तो लाइये उसके साथ वाद विनोद करे जिससे आपको महाराष्ट्र के सार्वभौम्य वादियों का ज्ञान हो जाय । राजा ने अपने गुरु वीर कुशल व राजकुशल से प्रार्थना ६१४ Jain Education International [ सूरिजी का स्वर्गवास और रेणु कोट www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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