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________________ वि० सं० ७७८.८३७ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जिसको लेकर गुरु से पूछा-भगवन् ! यह क्या है ? श्राचार्य श्री ने कहा-यह भोज व्याकरण तरीके प्रसिद्ध है। विद्वानों में शिरोमणि मालवपति ने सब विषयों में अनेकों ग्रंथ बनाये हैं । यह सुनकर राजा ने प्राचार्य श्री से जगजीवोपकारार्थ नवीन व्याकरण बनाने की प्रार्थना की । सूरिजी ने कहा-राजन् काशमीर में भारतीदेवी के भण्डार में व्याकरण की आठ पुस्तकें हैं उनको आप अपने आदमी भेज करके मंगवाओ जिससे व्याकरण शास्त्र रचने में सहूलियत हो । गुरु के वचनों को सुन करके राजा ने अपने आदमियों को काश्मीर देश में भेजे । प्रवरा नाम के प्राम में सरस्वती देवी की चंदनादिक से पूजा करने लगे। इससे संतुष्ट होकर देवी ने अपने अधिष्ठायक को आदेश किया कि-मेरेप्रसाद पात्र श्री हेमचन्द्रसूरि मेरे ही अनुरूप हैं अतः उनके लिये व्याकरण की आठों पुस्तकें देकर के उनको सम्मान पूर्वक विदा करो। आठों पुस्तकों को लेकर के जब वे अणहिल्लपुर आये और राजा के सम्मुख उक्त चमत्कार पूर्ण घटना का वर्णन करने लगे तो राजा को आश्चर्य के साथ ही हर्ष एवं अपने राज्य में वर्तमान ऐसे गुरु के लिये गौरव पैदा हुआ। आचा श्री हेमचन्द्रसूरि ने आठों व्याकरण का अवलोकन करके "श्रीसिद्धहम" नामका नवीन एवं अद्भुत व्याकरण बनाया जिसको लिखवा २ कर राजा ने बहुत दूर तक फैलाया । काकल नाम के आठ ध्याकरण के ज्ञाता विद्वान् को उक्त व्याकरण का अध्यापन कराने के लिये नियुक्त किया। एक दिन पण्डितों से शोभायमान् राजा की राजसभा में एक चारण आया। उसने अपभ्रंशभाषा में एक गाथा बोली। हेमसूरि अच्छाणिते ईसरजे पण्डिआ । लच्छिवाणि महुकाणि सांपइ भागी मुहमरुम ॥ इस गाथा को तीन बार बोलनेसे सूरिजीने उसको सभ्यों के पाससे ३० हजार रुपया इनाम दिलवाया। एक दिन राजा सिद्धराज ने गुरु महाराज से पूछा-अहो भगवन् ! आपके पट्ट योग्य अधिक गुणवान् शिष्य कौन है ? आचार्यश्री ने कहा-सुज्ञशिरोमणि रामचन्द्र नामका मेरा शिष्य है जो समस्त कलाओं में पारंगत एवं श्रीसंघ से सम्मानित है । उसी समय प्राचार्य ने राजा को उक्त शिष्य बताया तो शिष्य ने राजा की स्तुति करते हुए कहामात्रायाप्यधिक किञ्चिन न सहन्ते जिरिषवः । इतीव व धरानाथ ? धारानाथ ममाकृथाः ॥ इससे राजा सन्तुष्ट हुआ और प्राचार्यश्री के समान ही शासन प्रभावक होने की भावना प्रगट की इधर इर्ष्यालु ब्राह्मणलोग सूरिजी के तपस्तेज व अलौकिक पाण्डित्य जन्य प्रतिभा से असूया को धारण करके राजा को उनके विपरीत अनेक तरह से भ्रम में डालने का प्रयत्न करने लगे पर सुज्ञ राजा उनकी ओर उपेक्षा ही करता रहा । एक दिन प्रसङ्गोपात आचार्यश्री के व्याख्यान में नेमिनाथ चरित्रान्तर्गत पाण्डवों का चरित्र चल रहा था। उसमें पाण्डवों के शत्रुञ्जय पर सिद्ध होने का वर्णन आया तो ब्राह्मण लोग वेदव्यास विरचित महाभारत से विपरीत प्रसङ्ग को सुनकर राजा से कहने लगे कि अहो स्वामिन् ! वेदव्यास ने अपने भविष्य ज्ञान से युधिष्ठिरादिक का अद्भुत वृत्तांत कहा है उसमें अन्तिम समय में हिमालय पर्वत पर जाने व केदार में रहे हुए शंकर आदि के अर्चन पूजन से अन्तिम आराधना करने का उल्लेख है। पर ये श्वेताम्बर मुनि विपरीत भ्रम फैलाकर जन समाज को धोखे में डाल रहे हैं अतः इसकी रुकावट होनी १२६२ करमीर की ८ पुस्तके का व्याकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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