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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० ११७८-१७३७
चाहिये । इर्ष्यालु ब्राह्मणों के मुख से उक्त बात सुन कर राजा ने उचित विचार करने का आश्वासन देकर उन्हें विदा किया।
इधर राजा ने हेमचन्द्राचार्य को बुला कर पूछा- अहो भगवन् ! क्या पाण्डवों ने जैन दीक्षा ली, और शजय पर परमपद प्राप्त किया ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है ?
__ आचार्य ने कहा-हाँ, उल्लेख तो है पर यह नहीं कहा जा सकता कि वेदव्यास रचित महाभारत में वर्णित हिमालय पर गये हुए ही ये पाण्डव हैं या अन्य हैं।
राजा ने पुनः प्रश्न किया-आचार्यदेव ! क्या पाण्डव भी पहिले बहुत से हो गये हैं ? सूरिबोले- राजन् ! मैं कहता हूँ सो ध्यान पूर्वक सुनिये | व्यास रचित महाभारत में गांगेय पितामह का वर्णन अाता है । उन्होंने युद्ध में प्रवेश करते हुए अपने परिवार को कहा था कि-जहां अबतक किसी का अग्नि संस्कार न हुआ हो वहां मेरा अग्नि संस्कार करना" पश्चात संग्राम में भीष्म पितामह प्राण मुक्त हुए तो उनके वचनानुसार उनके शव को पर्वताप्रभाग पर कुटुम्ब के लोग अग्नि संस्कार के लिये ले गये जहांपर कि मनुष्यों का सञ्चार भी नहीं होता था पर वहांभी दिव्य वाणी हुई किअत्र भीष्म शतं दग्धं पाण्डवानां शतत्रयम् । द्रोणाचार्य सहस्रं तु कर्णसंख्या न विद्यते ॥
अर्थात्-यहां सौ भीष्म जलाने में आये हैं, तीन सौ पाण्डव और हजार द्रोणाचार्य बालने में आये हैं। उसी प्रकार कर्ण की संख्या तो हो ही नहीं सकती है।
उक्त प्रमाणानुसार उस समय जैन पाण्डव भी हो सकते हैं कारण, शत्रुलजय पर उनकी प्रतिमाएं हैं। नासिक के चंद्रप्रभ मन्दिर में व केदार महातीर्थ में भी पाण्डवों की प्रतिमाएं हैं।
हेमचन्द्राचार्य के शास्त्रसम्मत युक्ति पूर्ण समाधान से राजा बहुत प्रसन्न हुश्रा उसके मन में सूरिजी के प्रति अधिकाधिक श्रद्धा एवं स्नेह पूर्ण सद्भावनाएं पैदा होने लगी।
एक समय आभिग नामका राजपुरोहित क्रोध व इर्ष्या के वश राजसभा में विराजमान श्राचार्यश्री को कहने लगा कि- तुम्हारा धर्म शम और कारुण्य से सुशोभित है पर उसमें एक न्यूनता है कि श्राप लोगों के व्याख्यान में स्त्रियां सर्वदा शृंगार सजकर के श्राती हैं और तुम्हारे निमित्त अकृत और फ्रासुक आहार बनाकर आपको देती हैं तो तुम्हारा ब्रह्मचर्य किस तरह से स्थिर रह सकता है ? कारणविश्वामित्र पराशर प्रभृतयो ये चाम्बुपत्राशना स्तेऽपि । स्त्रीमुख पङ्कजं सललितं दृष्टैव मोहंगताः ॥
आहारं सुदृढ़ ( सुघृतं ) पयोदधियुतं ये भुंजते मानवा ।
स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद् विन्ध्यःप्लवेत्सागरे ॥ जल फल और पत्र का श्राहार करने वाले विश्वामित्र और पराशर मुनि स्त्री के बिलास युक्त मुख को देख करके मोह मूढ़ बन गये तो दूध दधि रूप स्निग्ध आहार भोगी मनुष्यों का इन्द्रिय निग्रह तो समुद्र में विन्ध्याचल पर्वत के तैरने जैसा है।
आचार्यश्री ने कहा-हे पुरोहित ! तुम्हारा यह वचन युक्त नहीं है क्योंकि चित्त वृत्तिये विभिन्न प्रकार की होती हैं जब पशुओं में भी विचित्रता ( भिन्नता) दृष्टिगोचर होती है तब चैतन्य युक्त मनुष्य की क्या बात ? कारणधर्म द्वोषियों के प्रश्न सूरिजी का समाधाक
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