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________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ७७०-८०० -www- -- - -------- ५-कैवल्य-ज्ञान यह सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मज्ञान है। इससे सकल लोकालोक के चराचार को एक समय मात्र में जान सकते हैं । इस ज्ञान से जीव की मोक्ष होजाती है फिर उस जीव को संसार में जन्म मरण नहीं करना पड़ता। दर्शन-जाने हुये भावों को यथार्थ सरद्धना अर्थात् श्रात्मा के प्रदेशों पर मिथ्यात्मा मोहनीय कर्म लगे हुये हैं जिसको समूल क्षय करने से क्षायक दर्शन और कुछ प्रकृतियों का क्षय और कुछ उपसम करना से क्षयोपसम दर्शन होता है । तथा शुद्ध देव गुरु धर्म को पहिचान कर उसकी आराधना करना और भी आत्मवाद, ईश्वरवाद, सृष्टिवाद, कर्मवाद और क्रियावाद इनको यथार्थ समझ कर उस पर श्रद्धा रखना ये व्यवहार दर्शन है एवं दर्शन की आगधना है। चारित्र-आरम्भ सारम्भ सर्व कनक कामिनी का सर्वथा त्याग कर पांच महाव्रत का पालन करना और अध्यात्म में रमणता करना चारित्र की आराधना है। स्याद्वाद इनसे भी गंभीर है। ___ महात्माजी ! दूसरा हमारा सिद्धान्त है अहिंसा परमोधर्मः और कहा है कि "एवं खु नाणीणो सारं जंन हिंसे ही किंचणं" "नाणम्स सारं वृति ।" ज्ञान का सार यही है कि किंचित मात्र हिंसा नहीं करना । इसलिये ही साधु जीवसहित कच्चा जल तथा अग्नि और वनस्पति का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हैं । प्रत्येक कार्य में अहिंसा को प्रधान स्थान दिया है । आत्म कल्याण का सर्वोत्कृष्ट यही मार्ग है। तापस थोड़ी देर विचार कर सोचने लगा कि मुनिजी का कहना तो सोलह आना सत्य है । भात्मा के कल्याण का रास्ता तो यही है । जव तक इस सड़क पर नहीं श्रावें तब तक कल्याण होना असंभव है। क्योंकि हम लोग साधु होते हुये भी अनेक प्रकार के प्रारम्भ सारम्भ करते हैं । कच्चे पानी में जीव होना तो अपने शास्त्र में भी लिखा है कि 'जले विष्णु थले विष्णु तथा कन्द मूल वनस्पति में भी बहुत जीव बतलाया है, जैसे : मूलकेन समंचान यस्तु भुडक्त नराधमः । तस्य शुद्धिर्न विद्यत चान्द्रायणश्तैरपि ॥ यस्मिन्गृहे स दानार्थ मूलकः पच्यते जनः । श्मशान तुल्यं तद्वेश्य पितृभिः परिवर्जितम् ।। पितृणां देवतानां च यः प्रयच्छति मूलकम् । स याति नरकं घोरं यावदाभूतसंप्लवम् ॥ अज्ञानेन कृतं देव ! भया मूलक भक्षणम् । तत्पापं यातु गोविंद! गोविन्द इति कीर्तनात् ।। हम स्नान करते हैं, कच्चा जल पीते हैं, अग्नि जलाते हैं, कन्द मूलादि वनस्पति का भक्षण करते हैं इत्यादि सम्पूर्ण अहिंसा का पालन नहीं कर सकते हैं फिर भी साधु कहलाते हैं इत्यादि विशुद्ध विचार करने से तापस के चेहरे पर वैराग्य की कुछ मलक मलकने लगी जिसको देख कर मुनि ने कहा महात्माजी ! क्या विचार करते हो आत्म कल्याण के लिये मतबन्धन या वेश बन्धन का जरा भी ख्याल नहीं करना चाहिये पर जिस धर्म से आत्मकल्याण होता हो उसको स्वीकार कर उसकी हो आराधना करनी चाहिये कहा भी है कि:सुच्चा जणइ कल्लाणं सुच्चाजणइ पावयं । उभमंपि जाणई सोच ज सवं तं समायरे ॥१॥ इनके अलावा नीति कारों ने धर्म की परीक्षा के लिये भी कहा है। तापस की प्रज्ञा और स्वशास्त्र] Jain Education fogonal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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