SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० सं० ३७० - ४०० वर्ष ] यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदन ताप ताडनैः । तथैव धर्मो विदुषा परिक्ष्यते श्रुतेन शीलेन तपो दयागुणैः ॥ पुनः महार्थियों ने कहा है कि [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कथमुत्पद्यते धर्मः कथं धर्मो विवर्द्धते । कथं च स्थाप्यते धर्मः कथं धर्मो विनश्यति ॥ १ ॥ 1 सत्येनोत्पद्यते धर्मोदयादानेन वर्द्धते । क्षमयाऽवस्थाप्यते धर्मः क्रोध लोभाद्विनश्यति ॥ इन सब बातों को आप सोच लीजिए फिर जिसमें आपको कल्याण मार्ग दीखता हो उसे ही स्वीकार कर लीजिये ? तापस ने कहा ठीक है मुनिजी ! अब आप कहाँ पधारेंगे ? मुनि - हमारे आचार्य महाराज जहाँ विराजते हैं हम वहाँ जायगे । तापस - क्या मैं भी आपके श्राचार्य के पास चल सकता हूँ । मुनि - अवश्य, आप बड़ी खुशी से चल सकते हैं। चलिये मेरे साथ । तापस अपने साथ १० तापसों जो उस समय उसके पास थे उनको लेकर मुनिजी के साथ चलकर सूरिजी महाराज के पास आया। सूरिजी महाराज ने तापस की भव्य आकृति देख कर उसका यथोचित सत्कार किया और मधुर बचनों से इस प्रकार समझाया कि वह वापिस अपने गुरु के पास भी नहीं जासका किन्तु सूरिजी महाराज के चरण कमलों भगवती जैनदीक्षा स्वीकार करने को तैयार होगया । सूरिजी ने उन १९ तापसों को दीक्षा देदी और मुख्य तापस का नाम मुनि शान्तिमूर्ति रख दिया। मुनि शांतिमूर्ति श्रादि ज्यों २ जैनधर्म की क्रिया और ज्ञान करने लगा श्यों २ उन सबको बड़ा भारी आनन्द आने लगा। मुनि शांतिमूर्ति पहिले ही लिखा पढ़ा था । फिर उसको पढ़ने में क्या देर लगती थी थोड़े ही समय में उसने जैनसाहित्य का अध्ययन कर लिया । मुनि शांतिमूर्ति जैसा लिखा पढ़ा विद्वान था वैसा ही वह वीर भी था उसने सम्यक् ज्ञान पाकर मिध्यान्धकारको समूल नष्ट करने का निश्चय कर लिया और इसके लिये भरसक प्रयत्न भी किया जिसमें आपश्री को सफलता भी काफी मिली। तत्पश्चात् सूरिजी महाराज अपने शिष्यों एवं शांतिमूर्ति के साथ विहार करते हुए पुनीत तीर्थ श्री सिद्धगिरिजी पधारे। वहां की यात्रा कर शांतिमूर्ति तो श्रानन्दमय हो गया । तदनन्तर सूरिजी महाराज अनेक प्रान्तों में विहार कर जैनधर्म के उत्कर्ष को खूब बढ़ाया । सौराष्ट्र, लाट, कच्छ, सिन्ध, पंजाब तो आपके विहार के क्षेत्र ही | आपके पूर्वजों ने इन प्रान्तों में विहार कर महाजनसंघ उपकेशवंश की खूब वृद्धि की थी तो आप ही कब पीछे रहने वाले थे। आपने भी इन प्रान्तों में विहार कर कई मांस भक्षियों को सदुपदेश देकर जैनधर्म की राह पर लगाये। कई मुमुक्षुओं को दीक्षा देकर श्रमसंघ में वृद्धि की। कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर तथा कई ग्रंथों का निर्माण कर जैनधर्म को चिरस्थायी बनाया। कई बार तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकलवा कर भावुकों को यात्रा का लाभ दिया । कई वादियों के साथ राजसभाओं में शास्त्रार्थ कर जैनधर्म का भंडा फहराया इत्यादि आपने अपने दीर्घ समय अर्थात ३० वर्ष के शासन में जैनधर्म की कींमती सेवा बजाई जिसका पट्टावल्यादि प्रन्थों में बहुत विस्तार से वर्णन किया है पर प्रन्थ बढ़ जाने के भय से मैंने यहां पर संक्षिप्त से नाम मात्र काही उल्लेख किया है कि श्राचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज एक महान युगप्रवर्तक आचार्य हुये हैं। आप अपनी अन्तिम स्था के समय मरुधर में विहार करते हुये माडव्यपुर पधारे और अन्तिम चतुर्मास भी वहीं ८०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only [ सूरिजी की शासन सेवाऐं www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy