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आचार्य कक्करि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १४७४-१५०८
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सं० १०७६ का चातुर्मास उपकेशपुर श्रीसंघ के आग्रह से उपकेशपुर में ही किया। चातुर्मास कालपर्यन्त
आपके विराजने से धर्म की अच्छी उन्नति एवं प्रभावना हुई । आपके त्याग वैराग्य सय उपदेश से सात पुरुष और तीन स्त्रियों ने वैराग्य पूर्वक दीक्षा ली। वहां से विहार कर सूरिजी मरुभूमि के छोटे बड़े ग्रामों में धर्मोपदेश देते हुए पाली नगर में पधारे । १०७७ का चातुर्मास पाली में किया। वहां पर बप्पनाग गौत्रीय शा. मूला ने आगम भक्ति कर भगवती सूत्र बचवाया। तप्त भट्ट गौत्रीय शा० बाला मेडराज ने अष्टाह्निका महोत्सव करवाया जिसमें एक लक्ष द्रव्य व्यय किया । स्वधर्मी बन्धुओं को यथायोग्य प्रभावना दी।
चातुर्मास के पश्चात् श्रेष्टिगौत्रीय शा० भाणा के सुपुत्र उता ने ६ मास की विवाहित पत्नी का त्याग कर सजोड़े आचार्यश्री के चरण कमलों में भगवती दीक्षा अङ्गीकार की। इस दीक्षा महोत्सव समारोह में प्रभावनादि पुन्योपात्रिक कायों में सवालक्ष द्रव्य व्यय कर जैन-शासन की महत्ता बढाई। इस तरह सानंद चात र्मास के सम्पन्न होने पर भिन्नमाल, सत्यपुर, शिवगढ़, जावलीपुर, कोरंटपुर वगैरह नगरों में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए चंद्रावती पधारे । श्रीसंघ के अत्याग्रह से १०७८ का चतुर्मास चन्द्रावती में ही किया । आपश्री के विराज ने से उक्त नगर में जैन-धर्म का पर्याप्त उद्योत हुआ । आपने ३६० पंवार क्षत्रियों को जैन बनाकर प्राग्वट वंश सम्मिलित कर दिया।
इधर शाकम्भरी नगरी में किसी दैविक प्रकोप से मरी रोग का प्रचण्ड उपद्रव प्रारम्भ हो गया था। ब्राझर। समुदाय ने अपने मन्तव्यानुसार रोगोपशमन के लिये जप, जाप, यज्ञ, हवन वगैरह बहुत उपाय किये फिर भी अभीष्ट की सिद्धि न होसकी। रोग-शान्ति के अभाव में संघ के प्रमुख २ व्यक्ति चलकर के आचार्यश्री कक्कसूरि के पास में प्रार्थनार्थ आये और सूरीश्वरजी को अथ से इति पर्यन्त नगरी सम्बन्धी दुःख गाथा कह सुनाई । आचार्यश्री को एतदर्थ शाकम्भरी नगरी पधारने के लिये आग्रह पूर्ण प्रार्थना की । सूरिजी ने भी उपकार का कारण जानकर चातुर्मास समाप्त होते ही शाकम्भरी की ओर पदार्पण कर दिया। इससे जैनियों को ही नहीं अपितु सकल नागरिकों को विश्वास हो गया कि जैन साधु बड़े ही उपकारी, निस्पृही, संयमी, ब्रह्मचारी एवं दयालु होते हैं । इनके पदार्पण से हम लोगों का दुःख निश्चिय ही मिट जायगा। इधर आचार्यश्री ने भी जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव शान्ति स्नात्र आदि प्रारम्भ करवा दिया। आप अष्टम तप कर अपने इष्ट की आराधना में संलग्न होगये । विधि विधान पुरःसर वृहद् शान्ति स्नात्र पूजा करवाई ! देवी देवताओं को समुचित बल बालकुल दिया। इस तरह क्रमशः सर्व प्रकारेण उपद्रव शान्ति होगई । इस तरह के चमत्कार से बहुत से जैनों ने आचार्यश्री के उपदेश से प्रभावित हो जैनधर्म स्वीकार किया। सूरिजी ने भी उन्हें जैनधर्म में दीक्षित कर महाजन संघ में सम्मिलित कर दिया।
__ पूर्व कालीन यह एक विशिष्ट विशेषता थी कि महाजन संघ जैनधर्म स्वीकार करने के पश्चात् हर एक व्यक्ति को अपनाने में निश्चिन्मात्र भी नहीं हिचकिचाता था । स्वधर्मी बन्धु के नाते उसे हर तरह की सहायता प्रदान कर धार्मिक संस्कारों को सुदृढ़ बनाता रहता था इसी से भीषण २ धार्मिक संघर्ष कालों में भी जैनधर्म उन्नत बदन से यथावत् संसार के अन्य धर्मों के सामने स्थिर रह सका । हमारे धर्म गुरु (श्राचार्यों) का समाज पर इतना प्रभाव था कि उनके आदेश का उल्लंघन कोई समाज का व्यक्ति कर ही नहीं सकता था। जहां कही नये जैन हुए उन्हें अपना भाई समझ कर महाजन संघ तत्काल ही उनके साथ रोटी बेटी व्यवहार कर लेता था। इससे जैनधर्म स्वीकार करने वालों को किसी भी तरह की तकलीफ नहीं होने पाती। इतना ही क्यों पर सब तरह से सम्मानित होने के कारण उन्हें जैनधर्म स्वीकार करने में अपूर्व आनन्दानुभव होता।
श्री संघ की एकत्रित प्रार्थना से वि० सं० १०७६ का चातुर्मास आचार्यश्री को शाकम्भरी नगरी में ही करना पड़ा। नित्य क्रमानुसार प्राचार्यश्री के व्याख्यान का जन-समाज पर आशातीत प्रभाव पड़ा । सूरिजी
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शाकम्भरी नगरी में बीमारी और सूरिजी. Private & Personal Use Only
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